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लेखक
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु हुए। उनको 1957 में 500 शीर्षस्थ शास्त्रज्ञ विद्वानों की तत्कालीन सभा- काशी विद्वत् परिषत् द्वारा 'जगद्गुरु' की मूल उपाधि से विभूषित किया गया। उनके भक्ति रस से ओतप्रोत व्यक्तित्व को देखकर उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ये भक्तियोगरसावतार हैं । इनके द्वारा प्रकटित ज्ञान का अगाध समुद्र आज कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन के नाम से जाना जाता है। इनका अलौकिक साहित्य यथा प्रेम रस सिद्धांत, प्रेम रस मदिरा, राधा गोविंद गीत आदि, इनके द्वारा विश्व को समर्पित दिव्यातिदिव्य स्मारक- प्रेम मंदिर, कीर्ति मंदिर एवं भक्ति मंदिर तथा वेदों शास्त्रों के प्रमाणों से युक्त प्रवचन एवं रसमय संकीर्तन के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व में बहुत से धर्म चल रहे हैं- श्री महाराज जी सभी धर्मों का सम्मान करते हुए उनके विरोधाभासी सिद्धान्तों को समन्वय करते हुए ऐसा सरल मार्ग बताते हैं जो सार्वभौमिक है।
लेखक
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का जन्म 1922 में शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ ग्राम में सर्वोच्च ब्राह्मण कुल में हुआ।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मनगढ़ एवं कुन्डा में सम्पन्न हुई। पश्चात् इन्होंने इन्दौर, चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया।
16 वर्ष की अत्यल्पायु में चित्रकूट में शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ वनों में एवं वृन्दावन में वंशीवट के निकट जंगलों में वास किया ।
श्रीकृष्ण प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी इनको देखता वह आश्चर्यचकित होकर यही कहता कि यह तो प्रेम के साकार स्वरूप हैं, भक्तियोगरसावतार हैं। उस समय कोई यह अनुमान नहीं लगा सका कि ज्ञान का अगाध अपरिमेय समुद्र भी इनके अन्दर छिपा हुआ है क्योंकि प्रेम की ऐसी विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं थी, घंटों-घंटों मूर्च्छित रहते। कभी उन्मुक्त अट्टहास करते तो कभी भयंकर रुदन। खाना-पीना तो जैसे भूल ही गये थे। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती रहती थी, कभी किसी कटीली झाड़ी में वस्त्र उलझ जाते, तो कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते। किन्तु धीरे धीरे अपने इस दिव्य प्रेम का गोपन करके श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार करने लगे। अब प्रेम के साथ-साथ ज्ञान का प्रकटीकरण भी होने लगा था।
1955 में इन्होंने चित्रकूट में एक विराट् दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान् एवं समस्त जगद्गुरु भी सम्मिलित हुए। 1956 में ऐसा ही एक विराट् संत सम्मेलन इन्होंने कानपुर में आयोजित किया था। इनके समस्त वेद शास्त्रों के अद्वितीय, असाधारण ज्ञान से वहाँ उपस्थित काशी के मूर्धन्य विद्वान् स्तम्भित रह गये। उस समय इनके सम्बन्ध में काशी के प्रख्यात पंडित, शास्त्रार्थ महाविद्यालय (काशी) के संस्थापक, शास्त्रार्थ महारथी, भारत के सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक, काशी विद्वत्परिषत् के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल 'षट्शास्त्री ' ने सार्वजनिक रूप से जो घोषणा की थी, उसका अंश इस प्रकार है- (कानपुर 19-10-56)
“काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान् नहीं स्वीकार करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से इस विशाल विद्वन्मंडल को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालु जी महाराज एवं उनकी भगवद्दत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी इनको पहचानें और इनसे लाभ उठायें।
आप लोगों के लिये यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच में आये हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हम उसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुए हैं। कल श्री कृपालु जी के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नत-मस्तक हो गये। हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालु जी महाराज को समझें और इनके सम्पर्क में आकर इनके सरल, सरस, अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतारकर अपना कल्याण करें।“
इसके पश्चात् इनको काशी विद्वत्परिषत् (भारत के लगभग 500 शीर्षस्थ शास्त्रज्ञ, वेदज्ञ विद्वानों की तत्कालीन सभा) ने काशी आने का निमंत्रण दिया। केवल 34 वर्षीय श्री महाराज जी को वयोवृद्ध विद्वानों के मध्य देखकर कुछ भावुक भक्त कहने लगे -उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग
श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिये गये विलक्षण प्रवचन को सुनकर एवं भक्ति रस से ओत-प्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान् मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने स्वीकार किया कि यह केवल वेदों, शास्त्रों, पुराणों के मर्मज्ञ ही नहीं है अपितु प्रेम के साकार स्वरूप भी हैं। तब सबने एकमत होकर इनको 14 जनवरी 1957 को 'जगद्गुरूत्तम' की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने घोषित किया कि श्री कृपालु जी को 'जगद्गुरूत्तम' की पदवी से सुशोभित किया जा रहा है।
..धन्यो मान्य जगद्गुरूत्तमपदैः सोऽयं समभ्यर्च्यते ।
इतना ही नहीं उन विद्वानों ने उनके अनुभवात्मक दिव्य ज्ञान व भक्तिरस से ओतप्रोत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अन्य बहुत सी उपाधियाँ भी प्रदान की
श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण,
वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य,
सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य,
भक्तियोगरसावतार भगवदनन्तश्रीविभूषित
जगद्गुरु १००८
स्वामि श्री कृपालु जी महाराज
सम्पूर्ण विश्व में भक्ति का प्रकाश
भक्ति तत्व को सम्पूर्ण विश्व में प्रकाशित करने के लिए आपने असंख्य प्रवचन दिये। जगह जगह घूमकर भारत के विभिन्न प्रान्तों में स्वयं पहुँचकर इन्होंने श्रीकृष्ण की अनन्य निष्काम भक्ति का प्रचार किया। छोटे से छोटे गाँव, बड़े से बड़े शहर दोनों जगह समान रूप से जाकर भक्ति का प्रचार किया।
इन्होंने विभिन्न देशों की यात्रा कर भक्ति का धुआँधार प्रचार किया । विभिन्न सभ्यताओं, विभिन्न जातियों, गरीब अमीर सबको गले लगाया। हिन्दी न जानने वाले भी इनके स्नेहमय मनमोहक स्वरूप से इनके प्रेमपाश में बँध गये। शास्त्रों वेदों के सिद्धान्तों को जन जन तक पहुँचाकर आपने विश्व का महान उपकार किया है। अज्ञान निन्द्रा में सोये लोगों को जगाकर उनके साथ उनके परम हितैषी मित्र की तरह व्यवहार करके स्वयं उनके साथ भक्तियोग की साधना की और उनसे अभ्यास कराया। समस्त शास्त्रों वेदों का सार भगवान् की अनन्य निष्काम भक्ति ही है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
अद्वितीय अलौकिक अभूतपूर्व
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अन्य बहुत-सी ऐसी विशेषतायें थीं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं, अर्थात् समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के इतिहास में कुछ विशिष्ट घटनायें इनके ही जीवन में पहली बार घटित हुईं।
- ये पहले जगद्गुरु हुए जिनका कोई गुरु नहीं था और वे स्वयं जगद्गुरूत्तम थे।
- ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु इनके लाखों अनुयायी हैं।
- ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त से दान किया। साथ ही भौतिक दान में भी अवढरदानी के समान रहे। समाज के अभावग्रस्त लोगों की सेवार्थ निर्धन सहायता कोष स्थापित करके गये हैं, जिससे भविष्य में भी ये सेवायें सुचारू रूप से चलती रहें।
- ये पहले जगद्गुरु हुए जो 91 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि प्रमाणों के नम्बर इतनी तीव्र गति से बोलते थे कि सभी शास्त्रज्ञों, वेदज्ञों, सन्तों ने हृदय से स्वीकार किया कि ये क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ एवं कोई अवतारी महापुरुष ही थे। सभी श्रोता जिसने भी उनके प्रवचन सुने, चाहे टी. वी. के माध्यम से, चाहे व्यक्तिगत रूप से वह हृदय से स्वीकार करता है कि ऐसी अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न विद्वान आज तक नहीं हुआ। पूर्ववर्ती सभी जगद्गुरुओं को शास्त्रार्थ द्वारा तत्कालीन विद्वानों को परास्त करने के उपरान्त जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त हुई किन्तु जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के तो प्रवचन को सुनकर ही काशी विद्वत्परिषत् के सभी विद्वान् नतमस्तक हो गये और इन्हें जगद्गुरूत्तम की उपाधि से विभूषित किया।
- ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने अपना उत्तराधिकारी भी किसी को नहीं बनाया, यानी ये गद्दीधारी जगद्गुरु नहीं है। संस्थाओं का कार्यभार संभालने के लिए अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपनी तीनों सुपुत्रियों को जे.के.पी. की अध्यक्षाओं के रूप में नियुक्त कर दिया था।
- ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने पूरे विश्व में राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर राधा नाम को विश्वव्यापी बना दिया। अब उनके द्वारा बनाये गये प्रचारक, प्रचार कर रहे हैं।
- यद्यपि ये भौतिक रूप से हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु आज भी अपने असंख्यों प्रवचनों, संकीर्तनों एव साहित्य के द्वारा अपनी आध्यात्मिक उपस्थिति का अनुभव कराते हुए करोड़ों जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं।
जीवन परिचय
जीवन परिचय
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
शास्त्रीय सिद्धान्तों का निरूपण करते हुए भक्ति तत्त्व के प्रचार प्रसार के लिए श्री महाराज जी की 91 वर्षों की जीवन यात्रा उनके संघर्षमय जीवन, त्याग, तपस्या, समर्पण की पुण्य गाथा है।
सनातन वैदिक धर्म प्रतिष्ठापना के लिए जिज्ञासुओं की आध्यात्मिक भूख शान्त करने के लिये, प्रेमियों को प्रेमरस पिलाने के लिये उन्होंने अपने सुख, विश्राम, भोजन की चिन्ता किये बिना जीवन पर्यन्त जगह जगह घूम घूम कर श्री कृष्ण की अनन्य निष्काम भक्ति का धुआँधार प्रचार किया है।
बाल्यकाल
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का जन्म शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में एक छोटे से ग्राम मनगढ़ में हुआ। इनके पिताजी श्री लालता प्रसाद त्रिपाठी एवं माता जी का नाम श्रीमती भगवती देवी था।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में हुई। मेधावी छात्रों की भाँति ये सदा ही कक्षा में प्रथम उत्तीर्ण होते रहे। अपने अध्यापकों के ये सदा अत्यन्त प्रिय रहे । 1931 में प्राइमरी पास करके आपने मनगढ़ ग्राम से पाँच मील दूर कुंडा मिडिल स्कूल में 1932 में दाखिला लिया। अपने क्षेत्र और कुल की परम्परा के अनुसार सन् 1933 में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह सम्पन्न हो गया।
शिक्षा
जब उनकी अवस्था सन् 1935 में 13 वर्ष की थी वह मनगढ़ से महू छावनी अपने बड़े भाई श्री राम नरेश त्रिपाठी के पास संस्कृत इत्यादि के अध्ययन के लिये चले गये। उनके भाई वहाँ अध्यापक के पद पर नियुक्त थे। वहाँ आपने लगभग 3 वर्ष तक अध्ययन किया।
आप सन् 1940 में चित्रकूट पधारे जहाँ राम नाम संस्कृत विद्यालय में पुनः व्याकरण का अध्ययन किया (प्रथमा, मध्यमा) पश्चात् इन्दौर गये। सन् 1945 तक आपने लौकिक दृष्टि से कई डिग्री प्राप्त कर ली जैसे-
- संस्कृत साहित्याचार्य कलकत्ता विश्वविद्यालय (इन्दौर परीक्षा केन्द्र) 1943
- व्याकरणाचार्य क्यून्स कॉलेज (वाराणसी) से संस्कृत व्याकरण की उपाधि 1944
- आयुर्वेदाचार्य अखिल भारतीय विद्यापीठ दिल्ली (इन्दौर परीक्षा केन्द्र) 1945
चित्रकूट और वृन्दावन के जंगलों में
1938 में, 16 वर्ष की आयु में, श्री महाराज जी चित्रकूट और फिर वृंदावन के वंशीवट इत्यादि बीहड़ जंगलों में पूर्ण परमहंसावस्था में रहे। यह इतना घना जंगल था कि अगर कोई इसमें प्रवेश कर जाय तो उसका बाहर निकलना कठिन हो जाय। यहाँ जंगली जानवर, शेर, चीते, हाथी, इत्यादि निर्भय हो घूमते थे।
नेत्रों से अविरल अश्रुधारा, करुण क्रन्दन तो कभी उच्च अट्टहास यही इनकी बाह्य स्थिति थी। कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते तो घंटो मूर्च्छितावस्था में पड़े रहते। कभी किसी वृक्ष का आलिंगन करके जोर जोर से रोना प्रारम्भ कर देते। हा प्रियतम ! हा प्राणेश्वर ! मानो श्री कृष्ण का आलिंगन कर रहे हों। तो कभी जंगली जानवरों शेर, चीते, हाथी इत्यादि के मध्य भी नृत्य गान इत्यादि इन्हें किसी का कोई भय नहीं था, सम्पूर्ण जगत् इनके लिए श्यामा श्याममय हो गया था। सभी प्राणियों के अन्दर अपने प्रियतम के ही दर्शन करते हुए प्रेमानन्द में निमग्न विचित्र अवस्था थी इनकी।
ज़ोर ज़ोर से रुदन करते हुए अलक्षित स्थान की ओर कभी बहुत तेजी से दौड़ते, कभी जड़वत् बैठ जाते। इतनी जोर से चीत्कार करते कि आकाशमंडल क्रन्दन की ध्वनि से भर जाता। कभी जोर से हुंकार भरते। प्रियतम के लिए छटपटा रहे हैं या किस भावजगत् में विचरण कर रहे हैं यह तो वह ही जानते होंगे, किन्तु श्रीकृष्ण प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी उनको देखता वह आश्चर्य चकित होकर यही कहता कि यह तो प्रेम के साकार स्वरूप हैं, भक्तियोगरसावतार हैं। उस समय कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सका कि ज्ञान का अगाध, अपरिमेय समुद्र भी इनके अन्दर छिपा हुआ है; क्योंकि प्रेम की ऐसी विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुधि बुधि नहीं थी, घण्टों-घण्टों मूर्च्छित रहते, कभी उन्मुक्त अट्टहास करते, तो कभी भयंकर रुदन। खाना-पीना तो जैसे भूल ही गये थे। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती थी, कभी किसी कटीली झाड़ी में वस्त्र उलझ जाते तो कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते।
कभी किसी वृक्ष का आलिंगन करके हा श्यामसुन्दर ! हा प्रियतम ! कहकर विरह वेदना से तप्त विरहिणी की भाँति करुण क्रन्दन करते। तो कभी प्यारी जू! श्यामा जू! कहते हुए भागते मानो प्रिया जू सामने हैं और ये उन्हें पकड़ना चाहते हैं। रसिकवर गुरुवर की यह विरहावस्था थी अथवा मिलन की; यह तो कोई रसिक ही समझ सकता है जो स्वयं उस भावसमाधि की अवस्था तक पहुँचा हुआ हो। प्राकृत बुद्धि से यह सब अगम्य है। भूख, प्यास, नींद सब से रहित हो गये, न इन्होंने खाया-पिया, न ही सोए। शरीर की किसी भी आवश्यकता ने इन्हें बाधा नहीं पहुँचाई । प्राकृत वस्तुओं की आवश्यकता, प्राकृत शरीर को होती है; दिव्य शरीर को नहीं।
इस प्रकार लगभग दो वर्षों तक विचरण के बाद, अंततः श्री महाराज जी की कुछ भक्तों से भेंट हुई। जन साधारण के लाभ के लिए, वे उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गए।
चित्रकूट सम्मेलन
श्री महाराज जी ने सन् 1955 में चित्रकूट का सम्मेलन आयोजित किया। 16 अक्टूबर 1955 से 31 अक्टूबर 1955 तक चलने वाले इस अद्वितीय सन्त सम्मेलन में महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा (काशी) और नील मेघाचार्य सहित समग्र भारतवर्ष के लगभग 72 सन्त और विद्वान् उपस्थित हुए थे। इस सम्मेलन में श्री महाराज जी स्वागताध्यक्ष थे। सभी सन्तों की सेवा श्री महाराज जी स्वयं ही करते थे, जो भी महात्मा आते उन्हें स्वयं उनके कक्ष तक छोड़ने जाते और उन्हें स्वयं ही चँवर भी डुलाते। कौन कर सकता है उनके जैसी सन्त सेवा।
स्वागत भाषण में श्री महाराज जी ने समागन्तुक महात्माओं से हिंदू धर्मग्रंथों के विरोधाभासी सिद्धांतों के समन्वय से संबंधित कुछ प्रश्नों के उत्तर देने का अनुरोध किया। उपस्थित किसी भी विद्वान ने उत्तर नहीं दिया। वरन, वे सभी नाराज हो गए और घोषणा की कि श्री महाराज जी स्वयं इन प्रश्नों का समाधान करें, हालांकि उनका नाम वक्ताओं की सूची में नहीं था। उनका नाम पुकारे जाने पर श्री महाराज जी वक्ता के रूप में मंच पर आ गए। श्री महाराज जी ने सम्मेलन के वास्तविक उद्देश्य को सफल करने के हेतु स्वयं बोलना प्रारम्भ किया जिससे जनता जनार्दन के सामने शास्त्रीय सिद्धान्तों के सार को प्रकट करते हुए भगवत्प्राप्ति के सर्वसुगम, सर्वसाध्य मार्ग को प्रशस्त किया जाय और वेदों, शास्त्रों, पुराणों में एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों में जो मतभेद सा है उसका निराकरण हो जाय। इस उद्देश्य से श्री महाराज जी नौ दिन तक प्रतिदिन तीन तीन घण्टे बोले।
श्री महाराज जी ने इस सम्मेलन में जो ज्ञान प्रकट किया वह अविश्वसनीय था! उन्होंने वेदों, गीता, भागवत और कई अन्य शास्त्रों से कई उद्धरण दिए। सभी शास्त्रों की उनकी गहन और पूर्ण महारत पर लोग चकित और मंत्रमुग्ध थे। जो भक्त उन्हें पहले से जानते थे, वे भी चकित थे, क्योंकि इससे पहले उन्होंने उन्हें केवल ढोलक के साथ आंसू बहाते हुए श्री कृष्ण नाम संकीर्तन करते देखा था।
जब महामहोपाध्याय गिरिधर शर्मा और नील मेघाचार्य काशी लौटे, तो उन्होंने श्री महाराज जी की बहुत प्रशंसा की, लेकिन अन्य विद्वानों को विश्वास नहीं हो रहा था कि इतनी अल्पायु में किसी को ऐसा ज्ञान हो सकता है। उन्होंने निर्णय लिया कि वे श्री महाराज जी की परीक्षा लेंगे।
कानपुर सम्मेलन
अगले वर्ष, श्री महाराज जी ने एक और सम्मेलन आयोजित किया। 5 अक्टूबर 1956 से 19 अक्टूबर 1956 तक यह द्वितीय महाधिवेशन हुआ। उसमें भी तमाम बड़े-बड़े महात्माओं को बुलाया गया।
काशी विद्वत परिषद के मुख्य सचिव, श्री राज नारायण शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. गिरिधर शर्मा और नील मेघाचार्य के कहने पर बिना किसी सूचना के सम्मेलन में शामिल हुए।
जब श्री महाराज जी ने ऐसे विशिष्ट अतिथि को देखा, तो उन्होंने उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने श्री महाराज जी से पहले बोलने का अनुरोध किया और कहा कि वह बाद में बोलेंगे। श्री महाराज जी के प्रवचन में गलतियों को नोट करने के इरादे से वे हाथ में कलम और कागज लिए बैठ गए। श्री महाराज जी का पूरा प्रवचन समाप्त हो गया किन्तु उनकी कलम नहीं हिली!
अगले दिन, श्री राज नारायण शास्त्री ने घोषणा की कि वह पहले बोलेंगे, अब श्री महाराज जी ने उनकी गलतियों को नोट करने के लिए हाथ में कलम लेकर अपना आसन ग्रहण किया। लेकिन श्री महाराज जी की कलम भी नहीं हिली! श्री राज नारायण शास्त्री ने कोई प्रवचन नहीं दिया; उन्होंने सिर्फ श्री महाराज जी की प्रशंसा की, जो इस प्रकार है,
“काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान् नहीं स्वीकार करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से इस विशाल विद्वन्मंडल को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालु जी महाराज एवं उनकी भगवद्दत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी इनको पहचानें और इनसे लाभ उठायें।
आप लोगों के लिये यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच में आये हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हम उसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुए हैं। कल श्री कृपालु जी के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नत-मस्तक हो गये। हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालु जी महाराज को समझें और इनके सम्पर्क में आकर इनके सरल, सरस, अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतारकर अपना कल्याण करें।“
अंत में उन्होंने श्री महाराज जी को काशी विद्वत परिषद के विद्वानों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया।
ऐतिहासिक स्वर्णिम दिवस
34 वर्ष की आयु में श्री महाराज जी ने 500 मूर्धन्य विद्वानों की सभा, काशी विद्वत परिषद के समक्ष प्रवचन श्रंखला दी। श्री महाराज जी ने वेदों, पुराणों, महाभारत, रामायण आदि के असंख्य उद्धरण देते हुए शास्त्रीय संस्कृत में प्रवचन दिया। उन्होंने चार जगद्गुरुओं जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य, जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य और जगद्गुरु श्री माधवाचार्य के अलग-अलग सिद्धांतों का समन्वय किया।
विश्व के इतिहास में पांचवें मूल जगद्गुरु
14 जनवरी 1957, मकर संक्रांति (विक्रम संवत् 2013) के पावन पर्व पर भारत के लगभग 500 मूर्धन्य विद्वानों की एकमात्र सभा काशी विद्वत परिषत् के प्रधानमंत्री श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री ने श्री कृपालु जी महाराज से जगद्गुरूत्तम पद स्वीकार करने के लिये प्रार्थना की। तब श्री कृपालु जी महाराज को जगद्गुरूत्तम की उपाधि से विभूषित किया गया -
....धन्यो मान्य जगद्गुरूत्तमपदैः सोऽयं समभ्यर्च्यते ।
और अपने पद्यप्रसूनोपहार: नामक प्रमाणपत्र में आपको अमितगुणाम्बोधि: अर्थात अनन्त गुणों का सागर घोषित करते हुए आपकी विविध प्रकार से स्तुति की। उनकी दिव्यातिदिव्य देह कान्ति से निर्झरित भक्ति पीयूष धारा ने सभी विद्वानों को यह स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया कि ये भक्तियोगरसावतार हैं। उपस्थित विद्वत्जनों ने यह अनुभव किया कि इनके रोम-रोम से भक्ति महादेवी का प्राकट्य हो रहा है।
जगद्गुरूत्तम
जगद्गुरु
जगद्गुरु शब्द बहुत पुराना है। महाभारत में अर्जुन ने श्री कृष्ण को जगद्गुरु कहा है - कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।
अतःमूल जगद्गुरु श्री कृष्ण हैं। किन्तु संसार में यह परम्परा आदि जगद्गुरु शंकराचार्य से प्रारम्भ हुई जो स्वयं शंकर भगवान् के ही अंशावतार थे। कलियुग में जब पाखण्ड बहुत बढ़ने लगा, बड़ी गड़बड़ हो गई, कपड़ा रंगा के बिना पढ़े-लिखे लाखों बाबा लोग हो गये। इन लोगों ने बिना शास्त्र, वेद, पढ़े, समझे मनगढ़न्त मार्ग बनाये और लोगों के कान फूँकने शुरू किये। अतः सही तत्त्वज्ञान के अभाव में लोग अत्यधिक भ्रमित हो गये।
इसलिए सब विद्वानों ने मिलकर यह निश्चय किया कि किसी एक महात्मा को हम जगद्गुरु की उपाधि दे दें। जगद्गुरु की उपाधि से वही सुशोभित होगा जो वेदज्ञ हो, शास्त्रज्ञ हो तथा भगवत्प्राप्ति भी कर चुका हो। भारत के सभी विद्वान् उसके सामने नतमस्तक हो जायें, तभी वह जगद्गुरु पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। लोग निश्चिन्त होकर उसके पास जायें और साधना करें। अतः धोखे से बच जायेंगे।
शंकराचार्य प्रथम जगद्गुरु हुए। इनके समय कोई सभा तो थी नहीं, इन्होंने सारे भारतवर्ष के विद्वानों को दिग्विजय किया। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के पश्चात् श्री रामानुजाचार्य, श्री निम्बार्काचार्य एवं श्री माध्वाचार्य जगद्गुरु हुए। उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान् आप सभी के ज्ञान के समक्ष नतमस्तक हो गये अतः ये सब दिग्विजयी कहलाये।
पाँचवें मूल जगद्गुरु
श्री माध्वाचार्य के जगद्गुरु बनने के पश्चात् लगभग 700 वर्ष तक कोई भी जगद्गुरु नहीं हुआ। पश्चात् काशी विद्वत्परिषत् काशी में भारतवर्ष के लगभग 500 मूर्धन्य शास्त्रज्ञ विद्वानों की सभा स्थापित की गई, इन सबके द्वारा एकमत से स्वीकार करने पर ही किसी को जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया जाता था। 14 जनवरी 1957 को इस परिषत् के द्वारा, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को ही इस ऐतिहासिक उपाधि से विभूषित किया गया था।
जगद्गुरूत्तम
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के सभी शास्त्रों वेदों के असाधारण, अप्रतिम, अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण कठिन संस्कृत में दिये गये प्रवचन को सुनकर काशी के सभी विद्वान् स्तम्भित रह गये। पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का विलक्षण समन्वय सुनकर सभी विद्वानों ने उन्हें जगद्गुरूत्तम रूप में स्वीकार किया। तथा इनके भक्तिरस से ओतप्रोत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इन्हें भक्तियोगरसावतार सहित अन्य अनेक उपाधियाँ प्रदान कीं।
श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण
"वेदों शास्त्रों पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों के ज्ञान के अगाध समुद्र, श्रुति प्रस्थान, स्मृति प्रस्थान, न्याय प्रस्थान तीनों का प्रमाण देने में प्रवीण।"
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिये गये प्रवचन एवं संकीर्तनों में उनका यह स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को भी जनसाधारण के लिए बोधगम्य बनाना उनकी प्रवचन शैली की विशेषता है। गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय सिद्धान्तों को इतनी मनमोहक सरल शैली में प्रस्तुत करते हैं कि मन्द से मन्द बुद्धि वाले भी निरन्तर श्रवण करने से ऐसे तत्वज्ञ बन जाते हैं जो बड़े-बड़े विद्वान् तार्किकों को भी तर्कहीन कर देते हैं। सरलता और सरसता के साथ-साथ दैनिक जीवन के क्रियात्मक अनुभवों का मिश्रण उनके प्रवचन की बहुत बड़ी विशेषता है। बोलचाल की भाषा में ही; जिसमें कुछ अंग्रेजी के शब्द भी आ जाते हैं, वह कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को जीवों के मस्तिष्क में भर देते हैं। श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में सक्षम हो सकता है। जब प्रवचनों में प्रमाण स्वरूप शास्त्रों वेदों के श्लोक बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त शास्त्र वेद उनके सामने उपस्थित हैं और वे एक के बाद एक पन्ने पलटते जा रहे हैं।
जितने भी आचार्य श्री के द्वारा ग्रन्थ प्रकट किये गये हैं चाहे वह गद्य में हों अथवा पद्य में, उन सभी में शास्त्रों वेदों के गूढ़तम रहस्यों को बहुत ही सरलता व सरसता से प्रतिपादित किया गया है। प्रत्येक ग्रन्थ नाना पुराण निगमागमादि सम्मत तो है ही साथ ही अपने आप में अप्रत्यक्ष रूप से ब्रह्मसूत्र का भाष्य ही है।
गौरांग महाप्रभु ने भागवत को ब्रह्मसूत्र भाष्य के रूप में स्वीकार किया है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित प्रत्येक ग्रन्थ ही भागवत, वेद, पुराण, गीता आदि का पूर्णरूपेण सरलतम रूप है, जो इस कलिकाल के मन्द से मन्द बुद्धि वालों के लिये भी ग्राह्य है। पद्य में विषय अधिक बोधगम्य हो जाता है, क्योंकि संकीर्तन में ही श्रवण भक्ति का भी समावेश हो जाता है। पूर्ण तत्वज्ञानयुक्त पदों का पुन: पुन: गान करने से बुद्धि में विषय स्वाभाविक रूप से बैठ जाता है, जो जीव को भक्तियोग की क्रियात्मक साधना की ओर स्वत: प्रेरित करता है। साहित्य के विषय में कुछ भी लिखना प्राकृत बुद्धि से सम्भव नहीं है, बस इतना ही कहा जा सकता है कि इनका प्रत्येक ग्रन्थ गागर में सागर ही है। इनका साहित्य ऐसा प्रेमरस सिन्धु है जिसमें अवगाहन करने पर शुष्क से शुष्क हृदय भी ब्रजरस में डूब जाता है। हृदय श्रीराधाकृष्ण प्रेम में विभोर हो जाता है तथा युगल झाँकी के दर्शन की लालसा तीव्रातितीव्र होती जाती है।
प्रत्येक ग्रन्थ को यदि ब्रह्मसूत्र का भाष्य कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। ग्यारह हजार ग्यारह दोहों के रूप में ‘राधा गोविन्द गीत’ एक अद्वितीय ग्रन्थ है। कोई भी विद्वान् पढ़ने के पश्चात् यही निष्कर्ष निकालेगा कि ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या इतनी सरसता और सरलता से कभी भी किसी ने भी नहीं की।
प्रेम रस सिद्धान्त, भक्ति-शतक, सेवक सेव्य सिद्धान्त इत्यादि ग्रन्थों में से कोई भी ग्रन्थ पढ़ने के पश्चात् पाठक के लिए कुछ भी ज्ञातव्य ज्ञान शेष नहीं रह जाता। सभी ग्रन्थ अपने आप में पूर्ण हैं। भक्ति-मार्गीय साधक के लिए जितना ज्ञान आवश्यक है, सम्पूर्ण ज्ञान इन ग्रन्थों में समाहित है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रणीत संकीर्तन संग्रह ब्रजरस माधुरी, युगल शतक, युगल रस भी अनेक ब्रह्मसूत्रों का सरल भाषा में पद्य रूप ही है।
अत: काशी विद्वत् परिषत् द्वारा प्रदत्त उपाधि श्रीमत्पदवाक्य-प्रमाणपारावारीण उनके प्रवचनों में तो दृष्टिगोचर होती ही है, इनका साहित्य भी इनके व्यक्तित्व के इस विशेषण का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
1008 पदों के रूप में इनके द्वारा प्रणीत ‘प्रेम रस मदिरा’ का हर पद गागर में सागर है।
बहुत से पदों में वैदिक ज्ञान का पूर्ण समावेश है। कुछ पद तो उपनिषदों के भक्ति सम्बन्धी मन्त्रों का सरलतम रूप हैं। कोई गीता के किसी श्लोक का हिन्दी काव्यात्मक रूप है तो कोई पद भागवत महापुराण के श्लोक का सरलतम हिन्दी पद्यात्मक रूप।
अतः रसिकों की भी और साधकों की भी परम निधि है। ऐसी मदिरा है जो पत्थर से पत्थर हृदय में भी युगल प्रेम का संचार कर देती है। इनके साहित्य पर अनेक शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं और भी अन्य विश्वविद्यालयों में शोधकार्य चल रहा है।
प्रेम रस मदिरा से ओत प्रोत ‘प्रेम रस मदिरा’ का आज के इस युग में विशेष महत्व है जिससे कलियुग की विभीषिका का सरलता से सामना किया जा सकता है। यह ऐसी मदिरा है जो बेसुध कर देती है। इसके पान करने के पश्चात् युगल दर्शन, युगल प्रेम, युगल सेवा बस यही कामना शेष रह जाती है समस्त सांसारिक कामनायें समाप्त हो जाती हैं।
वेदमार्ग प्रतिष्ठापनाचार्य
"वैदिक दर्शनानुसार भगवत्प्राप्ति का सरलतम, सार्वभौमिक मार्ग प्रतिष्ठापित करने वाले सर्वश्रेष्ठ आचार्य"
हिन्दू धर्म की सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम निधि वेद हैं। जितने शास्त्र पुराण धर्म ग्रन्थ बने हैं, सब वेद पर ही आधारित हैं। वेद ही अन्तिम प्रमाण है। वेद अनादि हैं, नित्य हैं, मनुष्य निर्मित नहीं हैं। वेद भगवान् की वाणी हैं। भगवान् के श्वास से प्रकट हुए हैं।
वेद ईश्वर स्वरूप हैं। जैसे भगवान् इन्द्रिय, मन, बुद्धि से परे हैं। उनका कार्य बुद्धि से परे है, उसी प्रकार वेद भी दुर्विग्राह्य है, अज्ञेय है। वेद भगवान् का स्वरूप हैं इसलिए बुद्धि से परे है।
वेद परोक्षवादात्मक हैं अर्थात् शब्दार्थ कुछ और होता है किन्तु तात्पर्यार्थ कुछ और होता है। केवल महापुरुष ही उसका वास्तविक अर्थ जान सकता है।
सनातनधर्म वेद पर आधारित है अत: अनादि है। आज सम्पूर्ण विश्व में ग्यारह धर्म चल रहे हैं- जापान में शिन्तो धर्म, चीन में ताओ या लाओत्सी धर्म और कन्फ्यूशियस धर्म, भारत में सनातन वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सिक्ख धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म, इस्लाम धर्म और क्रिश्चियन धर्म। ऐसे ही अनादिकाल से अब तक अनन्त धर्मों का निर्माण हो चुका है, वर्तमान में ग्यारह हैं। किन्तु ये सब सनातन नहीं हैं। ये बीच-बीच में बना करते हैं और इन सब धर्मों में अनेक परिवर्तन होते रहते हैं। अत: अनेक धर्म बन गये। और इन सब धर्मों में कौन धर्म सही है, हम किसको अपनायें यह मानव मस्तिष्क के लिए बहुत बड़ी समस्या है।
जिसको जैसा संग मिला, जैसा गुरु मिला वह उसी धर्म का अवलम्ब लेता है।
किसी महापुरुष के द्वारा ही वेद का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। स्वयं वेद कहता है। यथा -
अर्थात् श्रोत्रिय (वेदज्ञ शास्त्रज्ञ) ब्रह्मनिष्ठ (जिसने दिव्य प्रेम प्राप्त कर लिया है) गुरु से ही वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। अन्यथा
अर्थात् अल्पज्ञों से वेद डरता है कि मेरा अनर्थ करेगा। अत: किसी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के द्वारा ही वेदों में वर्णित सही धर्म का निर्णय हो सकता है।
भागवत में बहुत सुन्दर निरूपण है। उद्धव श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं कि आप भगवान् हैं- वेद के बनाने वाले, वेद के जानने वाले हैं तो मैं एक प्रश्न करता हूँ -
हमारे संसार में बड़े-बड़े महात्मा लोग भी अनेक प्रकार के मार्ग बताते हैं। इतने सारे मार्ग क्यों बन गये और क्या सही है। बेचारा मनुष्य पढ़-पढ़ करके, सुन-सुन कर के पागल हो जाता है कि क्या निर्णय ले। भगवान् ने उत्तर दिया -
महाप्रलय में सब वेद वगैरह लीन हो गये थे मुझ में, जब सृष्टि हुई तो मैंने वेद को प्रकट किया, और उसमें मैंने एक ही मार्ग बताया है -
अपनी रुचि के अनुसार वेद की वाणी के लोगों ने अनेकों अर्थ कर डाले।
एक पेड़ पर एक पक्षी बोल रहा था, तीन आदमी उस पेड़ के नीचे बैठे थे, उस पक्षी की आवाज को सुनकर एक ने कहा, कि क्यों भई ये क्या बोल रहा है? एक पंसारी की दुकान करता था, उसने कहा ये बोल रहा है सौंठ, मिर्च, अदरक। एक पहलवान बैठा था उसने कहा कि ये बोल रहा है दण्ड, बैठक, कसरत और एक भक्त भी बैठा था; उसने कहा कि ये बोल रहा हैं- राम, सीता, दशरथ। यानी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सबने अलग-अलग अर्थ किया लौकिक वाणी का भी, तो वेद तो अलौकिक वाणी है।
भगवान् ने तो सर्वप्रथम वेदों के द्वारा केवल अपने निज भागवत-धर्म का ही उपदेश दिया था, किन्तु अनंतानंत जन्मों के संस्कारों के कारण तथा सत, रज, तम बुद्धि होने के कारण एवं अनन्त प्रकार की रुचि वैचित्र्य होने के कारण, इस दिव्य वेद वाणी का साधकों ने अनेकानेक अर्थ कर डाला, जिसके परिणाम स्वरूप अनेकानेक मत बन गये। उनमें कुछ सत्य भी हैं; कुछ असत्य भी हैं। कुछ मत तो ऐसे हैं जो शास्त्रों वेदों के भी विपरीत, दंभियों ने बीच में ही गढ़ लिये हैं।
कुछ शास्त्रकार धर्म को, कुछ सत्य को, कुछ शम दमादि को, कुछ यम नियमादि को, कुछ जप को,कुछ तप को ,कुछ यज्ञ को, कुछ दान को, कुछ व्रत को, कुछ आचार को, कुछ योगादि को इत्यादि विविध प्रकार के साधनों को कल्याण का साधन बताते हैं, किन्तु वास्तव में इन साधनों से वास्तविक कल्याण नहीं होता, क्योंकि इन साधनों के परिणाम-स्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे आदि अन्त वाले होते हैं। उनके परिणाम में दु:ख ही दु:ख होता है। वे अज्ञान से युक्त होते हैं। वहाँ भी अल्प एवं क्षणभंगुर ही सुख मिलता है तथा वे स्वर्गादि समस्त लोक शोक से परिपूर्ण होते हैं। अतएव उसकी प्राप्ति तत्वज्ञ पुरुष नहीं करता एवं उसे भी इसी लोक के सदृश असत्य समझ कर परित्याग कर देते हैं।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। इन्होंने जो वेदमार्गप्रतिष्ठापित किया है वह सार्वभौमिक है। वैदिक सिद्धान्तों के सार को प्रकट करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज भगवत्प्राप्ति के सर्वसुगम सर्वसाध्य मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इन्होंने वेदों शास्त्रों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों में जो मतभेद सा है उसका पूर्णरूपेण निराकरण करके बहुत ही सरल मार्ग की प्रतिष्ठापना की है, जो कलियुग में सभी जीवों के लिए ग्राह्य है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज सम्प्रदायवाद से दूर हटकर, शिष्य परम्परा से भी दूर हटकर केवल श्रीकृष्ण की निष्काम भक्ति के लिए ही जीवों को निर्देश देते हैं। इनके अनुसार यद्यपि ईश्वरप्राप्ति के अन्य मार्ग भी हैं तथापि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ व सर्वसुलभ मार्ग है। आपके अनुसार कलियुग में एकमात्र नाम संकीर्तन की ही साधना निर्धारित की गई है। यदि यह भी मान लें कि कलियुग में अन्य साधनों से भगवत्प्राप्ति हो सकती है तब भी विचारणीय हो जाता है कि इतनी अमूल्य, सरस एवं शीघ्र फल प्रदान करने वाली संकीर्तन साधना को छोड़कर क्लिष्ट अन्य साधनाओं में प्रवृत्त होने में बुद्धिमत्ता ही क्या है।
आपके मतानुसार तो स्वसुख वासनागंध लेशशून्य श्रीकृष्ण सुखैकतात्पर्यमयी सेवा ही जीव का लक्ष्य है अर्थात् अपने सेव्य के सुख के लिये ही उनकी नित्य निष्काम सेवा प्राप्त करना ही जीवमात्र का परम लक्ष्य है। जो रसिक महापुरुष की अनन्य शरणागति पर उनकी अहैतुकी अकारण करुणा से ही प्राप्त होगा। सत्य मार्ग यह है कि जीव, एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनन्दकन्द सच्चिदानन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दे, एवं उन्हीं के नाम गुण लीलादिकों का स्मरण युक्त संकीर्तन करता हुआ रोमांच युक्त होकर आनन्द एवं वियोग के आँसू बहाये। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे एवं मोक्ष पर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा परित्याग कर दे।
निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य
"समस्त दर्शनों का शास्त्र वेद सम्मत समन्वय करने में पारङ्गत समन्वयवादी परमाचार्य"
सभी पूर्ववर्ती जगद्गुरुओं ने वैदिक ज्ञान की एक-एक शाखा को पकड़ कर उसी को पूर्ण महत्ता दी, उसी सम्बन्ध का प्रचार व प्रसार किया और उसे ही सत्य सिद्ध किया, जैसे - जगद्गुरु शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का ही प्रचार किया। इसी प्रकार अन्य जगद्गुरुओं ने भी विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद एवं द्वैतवाद आदि का प्रचार किया। उसे ही सिद्ध करने के लिये भाष्यादि लिखे।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ऐसे पहले जगद्गुरु हुये जिन्होंने हर जगद्गुरु एवं अन्य विश्रुत संतों के मतों का समान रूप से स्वागत किया। अपने आश्चर्यजनक तर्कों व वेदशास्त्र के प्रमाणों द्वारा सभी के मतों की सार्थकता को प्रमाणित किया और सब मतों का समन्वय करते हुये समस्त मत-मतान्तरों का सारांश बताया एवं जन-साधारण को उससे क्या और कैसे लाभ लेना है, यह भी प्रस्तुत किया। ये एक अत्यन्त दुरूह कार्य था जो श्री कृपालु जी महाराज ने बड़े ही सरल ढंग से प्रस्तुत किया। अत: काशी विद्वत् परिषत् ने इन्हें निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य की उपाधि से भी अलंकृत किया।
सन् 1955 में चित्रकूट में एवं सन् 1956 में कानपुर में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलनों में ही आचार्य श्री का यह स्वरूप प्रकट हो गया था। यद्यपि काशी विद्वत्परिषत् ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।
चित्रकूट सम्मेलन में आचार्य श्री ने -
- नाना शास्त्रों में दीखने वाले वैमत्य और मतभेदों का निराकार करके उसका समन्वय किया।
- कर्म, ज्ञान, उपासना आदि मार्गों के पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डालते हुए मीमांसा आदि शास्त्रों की परमानन्द प्राप्ति में उपादेयता बताई।
- पश्चिमी दार्शनिक सिद्धान्तों तथा भारतीय विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों तथा
- अद्वैत तथा द्वैत और उसमें भी विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद तथा पुष्टि मार्ग का सविस्तार वर्णन करते हुए उनके सिद्धान्तों का समन्वय किया।
- अन्त में उन्होंने भवगान् राम कृष्ण की भगवत्ता तथा
- भगवान् उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम और उनके जन (महापुरूष) की अभिन्नता पर प्रकाश डालकर भक्ति मार्ग को सर्वसुलभ, सार्वकालिक और सर्वोपरि सिद्ध करके भक्तिरस की विलक्षणता पर प्रकाश डाला वह भी अत्यधिक सरल, सरस और ओजस्वी वाणी में तथा साधिकार शास्त्रों वेदों आदि के प्रमाण सहित।
श्री महाराज जी ने कानपुर सम्मेलन, 1956 में भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद का समन्वय किया था एवं निम्न प्रश्नों पर विशेष प्रकाश डाला था -
- भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद का सनातन सम्बन्ध तथा उनका वास्तविक - विशुद्ध स्वरूप विश्लेषण।
- भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद को एक दूसरे की अनिवार्य आवश्यकता
- भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद का अन्तिम विशुद्ध-सिद्ध परिणाम
- भौतिकवाद एवं आध्यात्मिकवाद की समन्वयात्मक निर्विवाद सिद्ध क्रियात्मक साधना।
सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापन सत्संप्रदायपरमाचार्य
"वेद सम्मत सनातन धर्म प्रतिष्ठापित करके जीवों को भक्तियोग द्वारा भगवान् की ओर ले जाने वाले भक्तियोग के परमाचार्य।"
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कोई शिष्य भी नहीं बनाया और कोई सम्प्रदाय भी नहीं चलाया। वे कहते थे सम्प्रदायों में परस्पर द्वेष फैलता है। उन्होंने सभी सम्प्रदायाचार्यों के सिद्धान्तों का पूरा समन्वय किया। उन्होंने आज तक किसी को मन्त्रदान नहीं दिया। अमेरिका में एक बहुत बड़े पादरी ने आपसे प्रश्न किया कि आपके कितने लाख शिष्य हैं?
इनका उत्तर सुनकर वह आश्चर्य चकित हो गये जब इन्होंने मुसकुराते हुए उत्तर दिया - एक भी नहीं। उसने पुन: प्रश्न किया - आप वर्तमान मूल जगद्गुरु हैं और आपका एक भी शिष्य नहीं। क्या आप कान नहीं फूँकते? जगद्गुरु श्री कृपालु जी ने उत्तर दिया - नहीं, मैं कान नहीं फूँकता। कान फूँकने वालों की बुराई करता हूँ। इसलिए हमारे खिलाफ हो गये हैं सारे बाबा लोग।
हमारे संसार में दम्भ चल रहा है। जो भी सम्प्रदाय चल रहे हैं। शिष्यों की लाईन लगाते चले जाते हैं, कान फूँकते चले जाते हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार यह सब सत्सम्प्रदाय नहीं है। सत्सम्प्रदाय से तात्पर्य है - सनातनवैदिकधर्म की प्रतिष्ठापना। वेदों के अनुसार सही-सही गुरु द्वारा सही मार्ग दर्शन।
इनके अनुसार तीन सनातन तत्व हैं ईश्वर, जीव और माया। अत: दो ही क्षेत्र हैं- ब्रह्म श्री कृष्ण एवं मायिक जगत्। मन ही शुभाशुभ कर्म का कर्ता है। यदि मन श्री कृष्ण में लगा दिया जाय तो श्री कृष्ण सम्बन्धी ज्ञान (सर्वज्ञता ) एवं आनन्द (दिव्य अनन्त) प्राप्त होगा। यदि मायिक जगत् में मन लगा रहेगा तो अज्ञान एवं दु:ख ही प्राप्त होता रहेगा।
अत: जो भगवान् में ही शाश्वत सुख मानते हैं तदर्थ निरन्तर प्रयत्नशील हैं वे भागवत्सम्प्रदाय वाले हैं और जो इसके विपरीत मायिक जगत् में मन को लगाते हैं वे माया के सम्प्रदाय वाले हैं, और कोई सम्प्रदाय है ही नहीं, हो ही नहीं सकता। इनको श्रेय और प्रेय भी कहते हैं। कठोपनिषद् में नचिकेता और यमराज का बहुत सुन्दर संवाद है नचिकेता को यमराज ने सत्सम्प्रदाय की जो शिक्षा दी उसे ही इन्होंने प्रतिष्ठापित किया है।
दो मार्ग होते हैं। एक का नाम श्रेय, एक का नाम प्रेय। जो श्रेय को अपनाता है वो आनन्दमय हो जाता है और जो प्रेय को अपनाता है वो चौरासी लाख में घूमता रहता है। तीसरा कोई मार्ग नहीं है, हो भी नहीं सकता।
क्योंकि वेद के अनुसार तीन सनातन तत्त्व हैं- भगवान्, जीव, माया। चौथा तत्त्व कोई था, न है, न होगा। तो जीव तो हम लोग हैं ही हैं, अब जीव के अलावा बचे दो, एक भगवान् एक माया। जो भगवान् की ओर जाता है उसको श्रेय कहते हैं और जो माया रूपी जगत् में जाता है उसको प्रेय मार्ग कहते हैं तीसरी कोई चीज़ है ही नहीं तो कहाँ जायेगा? या तो श्रेय अपनायेगा, या तो प्रेय अपनायेगा।
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से संतप्त कलिमल ग्रसित जीवों को प्रेय मार्ग से हटाकर श्रेयमार्ग की ओर अग्रसर होने के लिए भागीरथ प्रयास किया अनेक प्रकार के साधनों संकीर्तन, प्रवचन, साहित्य द्वारा निरन्तर यही प्रयास किया कि किसी तरह कोई भी जीव श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मान ले। श्रेय मार्ग को अपना ले। श्रीकृष्ण को धारण कर ले।
श्रेयमार्ग से तात्पर्य है - केवल भगवान् की शरणागति।
तमाम प्रकार की बातें बाबा लोग, संत लोग करते है। भागवत के अनुसार सब प्रेय है श्रेय तो केवल एक है भक्ति मार्ग -
एक भक्ति से ही मैं प्राप्त हो सकूँगा। ये मार्ग जो श्रेय का है, बस एक है। बाकी जितने मार्ग हैं - धर्म है, यज्ञ है, दान है, व्रत है तपश्चर्या है, इन सबका फल स्वर्ग है यानी भगवान् की शरणागति के अलावा जितने भी मार्ग हैं सब स्वर्ग तक ले जाकर फिर छोड़ देंगे और चार दिन बाद फिर लुढ़क कर आ जायेंगे नीचे। शोक ही शोक है वहाँ। स्वर्गलोक नश्वर है और वह प्रेय मार्ग के द्वारा मिलता है।
किसी साधक ने इनसे प्रश्न किया महाराज जी लोग पूछते हैं तुम्हारा सम्प्रदाय क्या है? इन्होंने उत्तर दिया -
अगर आप लोगों से कोई सम्प्रदाय के बारे में पूछे तो सीधा-सीधा जवाब देना कि ये बताइये कि जीव के सिवा कौन बचा? एक तो जीव है यानी हम सब मायाधीन, नम्बर दो भगवान् है, नम्बर तीन माया है। चौथा तो कोई तत्त्व है नहीं। कहीं लिखा है चौथा तत्त्व? तो हमारे सिवा दो बचे एक भगवान्, एक माया। तो हम सब जीव इन्हीं दोनों में किसी के फॉलोअर होंगे। या तो हम भगवान् की पार्टी के होंगे या तो माया की पार्टी के होंगे। तीसरी कोई चीज है ही नहीं जिसकी पार्टी बने। तीसरे तो हम लोग हैं ही बनने वाले। तो जो भगवान् को अपना इष्ट मानते हैं, भगवान् में आनन्द मानते हैं और भगवान् की भक्ति करते हैं, वो भागवत सम्प्रदाय के हो गये और जो संसार में सुख मानते हैं और संसार को ही अपना सर्वस्व मानते हैं वो माया सम्प्रदाय के हो गये। बस छुट्टी। अब अगर भगवान् में भी आप ये कहें कि कौन-से भगवान् के हैं? तो अनन्त भगवान् हो चुके हैं, अनन्त अवतार। अवतारा ह्यसंख्येया भागवत कह रही है। भगवान् के अनन्त अवतार हो चुके हैं। तो एक-एक अवतार की सम्प्रदाय बन जायेगी। हैं तो सब भगवान् ही वो। तो इसलिये बस दो सम्प्रदाय हैं- एक भगवान् की, एक माया की।
भक्तियोगरसावतार
"दिव्य प्रेमानन्द में निमग्न श्रीराधाकृष्ण भक्ति के मूर्तिमान स्वरूप।"
काले घुंघराले केश प्रेम परिप्लुत सजल नेत्र, चित्ताकर्षक मृदु मुसकान के साथ जब 34 वर्षीय आचार्य श्री ने काशी विद्वत्सभा के मध्य प्रवेश किया, तो सभी विद्वान् मंत्र-मुग्ध से देखते रह गये।
समस्त शास्त्रों, वेदों, पुराणों तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों के असाधारण अलौकिक ज्ञान से युक्त कठिन संस्कृत में दिये गये वक्तव्य से तो सब नतमस्तक हो ही गये उनकी सूर्य के समान कान्ति युक्त दिव्यातिदिव्य देह कान्ति से निर्झरित भक्ति पीयूष धारा ने सभी विद्वानों को यह स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया कि ये भक्तियोगरसावतार हैं। उपस्थित विद्वत् जनों ने यह अनुभव किया कि इनके रोम-रोम से भक्ति महादेवी का प्राकट्य हो रहा है। ये स्वयं ही - रसो वै स: रस ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तरियोपनिषत् २.७)
इस वेदवाणी का क्रियात्मक रूप हैं। ये रस और रसिक दोनों प्रतीत होते हैं। इनकी उपस्थिति ही अनुपम रस धारा प्रवाहित कर रही है, सबके हृदय में अपार उल्लास का संचार हो रहा है मानो राधाकृष्ण-भक्ति मूर्तिमान हो गई है।
भक्ति की अन्तिम परिणति का नाम महाभाव और महाभाव का मूर्तिमान विग्रह हैं श्री राधा। श्रीकृष्ण रसिक शिरोमणि हैं, सम्पूर्ण अलौकिक रसों की निधि हैं। भक्ति और रस दोनों का अपूर्व सम्मिश्रण हैं ये कृपालु। अत: राधाकृष्ण दोनों के ही सौन्दर्य रूपी अमृत के भण्डार रसिकों के शिरोमणि, प्रेम के साक्षात् स्वरूप जगद्गुरु कृपालु जी वेदज्ञ, शास्त्रज्ञ तो हैं ही ये भक्तियोगरसावतार भी हैं। श्री राधाकृष्ण भक्ति का मूर्तिमान स्वरूप हैं।
काशी विद्वन्मंडल द्वारा उद्घोषित भक्तियोगरसावतार वाला स्वरूप उनके जीवन में पग-पग पर परिलक्षित होता था। विस्तार से तो कुछ लिखना सम्भव ही नहीं है क्योंकि दिव्य भावों के विषय में दिव्य लेखनी ही वर्णन कर सकती है। प्राकृत शब्दों की गति दिव्य भाव राज्य में कहाँ है। तथापि अनुभवात्मक प्रमाण और शब्द प्रमाण के आधार पर कुछ लिखा जा रहा है।
सभी मूर्धन्य विद्वानों एवं भक्त साधकों का प्रत्यक्ष अनुभव ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि जगद्गुरु कृपालु जी महाराज स्वयं श्री गौरांग महाप्रभु का ही स्वरूप हैं।
काशी विद्वत्परिषत् के पश्चात् शब्द प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि यहाँ सभी विद्वान् वेदों, शास्त्रों का ही चल रूप थे। प्रत्यक्ष रूप में भी आचार्य श्री की दिव्यविरहोन्माद अवस्था में आठों सात्विक भावों का उद्रेक हो जाता था। आठों सात्विक भावों का उद्रेक देखकर भावुक भक्त भी और तत्त्वज्ञानी भी बरबस यह मानते हैं कि गौर श्याम मिलित वपुधारी गौरांग ही कलिमल ग्रसित जीवों को भगवत्स्मृतिविहीन अतिशय दीन दशा निवृत्ति के लिए पुन: अवतरित हुए थे।
संकीर्तन के समय सभी को ब्रजरस से सराबोर कर देना उनके अन्दर छिपे ब्रजरस सागर का परिचायक था।
प्राक्तन में महारसिकों ने जिस ब्रजरस की वर्षा की है उसी ब्रजरस को पात्र अपात्र का विचार किये बिना जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सभी को पिलाया।
इनके दर्शन मात्र से चित्तवृत्ति परिवर्तित हो जाती थी। भगवद् प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित हो जाता था। दुष्ट प्रवृत्ति का ही संहार हो जाता था अत: कितने असुर प्रवृत्ति वाले श्री कृष्ण प्रेमी बन गये।
प्रेमावतार जगद्गुरु कृपालु जी ने बिना जाति पांति, साधु, असाधु, पात्र-अपात्र का विचार किये श्रीकृष्ण प्रेम प्रदान कर करुणा की पराकाष्ठा प्रकाशित करके अपने कृपालु नाम को चरितार्थ कर दिया।
कलियुगी जीवों के पाप कलुषित चित्त में भी युगल प्रेम का संचार, उनके भक्तियोगरसावतार स्वरूप को प्रमाणित करता है।
श्रीकृष्ण नाम, रूप, लीला, गुण, धाम संकीर्तन के समय कभी हँसते थे, कभी रोते थे, कभी चीखते थे, कभी गाते थे तथा कभी उन्माद रोगी की भाँति लोकातीत होकर नाचने लगते थे। भक्तिरसामृतसिन्धु में वर्णित -
स्तम्भ: स्वेदोऽथ रोमांच: स्वरभेदोऽथ वेपथु:।
वैवर्ण्यमश्रुप्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका: स्मृता:॥ (भक्ति र.सि. २.३.१६)अर्थात् प्रेमास्पद की याद में वृक्ष के समान स्थिर समाधिस्थ हो जाना, पसीना निकलना, रोंगटे खड़े हो जाना, आवाज बदल जाना, शरीर काँपना, चेहरे का रंग बदल जाना, आँसू निकलना, मूर्च्छित हो जाना।
उपर्युक्त अष्ट सात्विक भावों का एक साथ उद्रेक अगाध दिव्य प्रेम का परिचायक है। आचार्य श्री के अन्दर इन सभी सात्विक भावों का जब उद्रेक होता था तो सम्पूर्ण वातावरण भक्ति -रस से ओत प्रोत हो जाता था। एक-एक अंग से शोभा श्री की ऐसी सुधा धारा प्रवाहित होती थी जो सभी के अंग प्रत्यंग में अमृत का संचार कर देती थी। भक्त वृन्द आह्लाद सुधा सरिता में बह जाते थे। सभी का हृदय अपार आनन्द से भर जाता था परमानिर्वचनीय रसमत्तता में सभी डूब जाते थे।
अक्सर मृदंग बजाकर हरे राम संकीर्तन कराते थे। जैसे ही मृदंग उनके हाथ में आता संकीर्तन में प्राण आ जाते। उनकी लम्बी लम्बी अंगुलियों का थिरकना, उनकी थाप सभी कुछ अलौकिक था। सभी भक्त भक्ति रस में डूब जाते और अश्रुपूरित नेत्रों से उनकी उस मधुरातिमधुर मनोहारी छवि का दर्शन करते। ऐसा लगता जड़ चेतन सभी प्रेमरस सिन्धु में डूबते चले जा रहे हैं।
कभी कभी हरे राम संकीर्तन के मध्य वे भावस्थ अवस्था में ही हरि हरि बोल संकीर्तन करते हुये दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर खड़े हो जाते थे। सामूहिक कीर्तन हरे राम की जगह हरि बोल में परिवर्तित हो जाता था। ढोल, मजीरा, करताल सभी की लय तेज हो जाती और ये मोरपंख के समान कभी दोनों हाथ आगे झुकाते कभी पीछे, कभी हुंकार, कभी चीत्कार, कभी अट्टहास करते तो कभी दाँत भींचकर हाथों को मोड़कर कंधों के बीच लाकर जोर से दबाते। भक्त लोग एक गोला बनाकर इनके चारों ओर खड़े हो जाते थे। ये भावावेश में कभी इधर टकराते कभी उधर टकराते। जिन सौभाग्यशाली भक्तों को इनका स्पर्श मिलता वे भी विभोर होकर प्रेम रस में आकंठ डूब जाते पूरे शरीर में बिजली सी दौड़ जाती। वे बार बार इन्हें गिरने से रोकते किन्तु अचानक धड़ाम से ये संज्ञा शून्य होकर गिर पड़ते। भक्त दौड़कर इनके चरणों के नीचे और सिर के नीचे तकिये लगाते। भूचाल के से झटके आते, कभी सिर उठता, कभी हाथ फिर तकिये पर गिर जाते।
भक्त दूर से ही इनकी इस विचित्र अवस्था को देखकर स्वयं भी करुण क्रन्दन करते। कुछ देर पश्चात् अचानक बहुत जोर से उठते पुनः उद्दाम नृत्य प्रारम्भ हो जाता कभी हाथों को शरीर से चिपका कर बड़ी विचित्र सी चाल चलते हुए पुनः भक्तों से टकराते जो उनके दिव्य स्पर्श को पाते वे अपने भाग्य की सरहाना करते। इनके नृत्य स्थल से, भक्त चरण रज मस्तक पर लगाते और उसी भूमि में लेट जाते।
प्रेम के इन सात्विक भावों से अनभिज्ञ अभक्त संसारासक्त तो इन्हें कोई शराबी ही समझता अथवा सोचता कि इन्हें कोई मिरगी का दौरा पड़ता है। नृत्य करते करते पुनः पृथ्वी पर गिर जाते मानों पैर फिसल गया हो।
फिर शान्त होकर लेट जाते अब हरि बोल कीर्तन की लय धीमी हो जाती किन्तु किसी भी प्रकार से चैतन्य अवस्था में नहीं आते कभी कभी तो घण्टों इसी भावस्थ अवस्था में रहते थे। फिर भक्त
जब बहुत देर तक ये महाभाव की स्थिति में ही रहते तो भक्त ‘भजो गिरिधर गोविंद गोपाला’ संकीर्तन प्रारम्भ कर देते थे मानो कोई भाव शमनकारी बूटी हो।
एक विचित्र ढंग से ये एक झटके के साथ उठकर बैठ जाते फिर विस्मयकारी दृष्टि से सबको देखते। आँखे फाड़ फाड़ कर चारों ओर कुछ देर देखने के बाद पास रखे तौलिये से आँसू पोंछते। कोई महापुरुष ही इनकी इन विचित्र अवस्थाओं का निरूपण कर सकता है। कभी कभी उघाड़े बदन होते और भावस्थ अवस्था में प्रवेश कर जाते तो सूर्य के समान चमकता हुआ स्वर्ण कान्ति युक्त शरीर उस पर गुलाब, जुही, मोगरे इत्यादि की मालायें अपूर्व शोभा को प्राप्त करती। नेत्र बन्द नृत्य करते हुए चरण, वह भी लगता कि पृथ्वी से ऊपर हैं। कभी कभी एक पैर पर ही नृत्य करते। सम्पूर्ण वातावरण में दिव्य सुगन्ध व्याप्त हो जाती ऐसा प्रतीत होता जैसे कोई ब्रजरस उड़ेलता जा रहा है मानो प्रेमसिन्धु में ज्वार आ गया, सब डूबते जा रहे हैं।
आँखों के माध्यम से इस छवि को हृदय में धारण करके सभी भक्त भी अश्रु प्रवाहित करते हुऐ चैतन्य काल में प्रवेश कर जाते।
आज भी वीडियो के माध्यम से उनकी इन अवस्थाओं का दर्शन करके हृदय में युगल प्रेम का संचार स्वतः होने लगता है।
चैतन्य अष्टपदी का सैकड़ों रूपों में निरूपण और उनके सिद्धान्तों का अत्यधिक विस्तृत रूप में प्रचार यही आचार्य श्री का जीवन पर्यन्त प्रयास रहा।
अतः स्पष्ट ही हो जाता है कि चैतन्य देव ही पुनः कृपालु रूप में अवतरित हुए। उस समय के अधूरे कार्यों को पूर्ण करने के लिये।
चैतन्य महाप्रभु ने जिन सिद्धान्तों का निरूपण किया उनका इतना अधिक प्रचार प्रसार, उनकी इतनी विस्तृत व्याख्या, एक नहीं सैकड़ों प्रकार से उन सिद्धान्तों को समझाना, साथ ही जनसाधारण के मस्तिष्क में बैठाना यह अन्य किसी के द्वारा सम्भव हो ही नहीं सकता।
वही आजानुलम्बित भुजायें, वही गौर वर्ण, प्रेमी जन को प्रेम दान को आतुर, प्रेम रस परिप्लुत सजल नेत्र। करुणा, दीनता, क्षमाशीलता की पराकाष्ठा सब कुछ वैसा ही है।
अब इस युग के अनुरूप रूप था। तब उस युग के अनुरूप रूप था। उस समय संन्यास धर्म धारण किया। इस समय संन्यासियों के सिर मोर होकर भी गृहस्थ धर्म का पालन किया।
भगवदनन्तश्रीविभूषित
"अनन्तानन्त भगवदीय गुणों एवं विभूतियों से ओतप्रोत।"
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व अद्वैतवादी जगद्गुरु श्री शंकराचार्य, लगभग आठवीं नवीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री निम्बार्काचार्य, 12 वीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैतवादी जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य एवं लगभग 14 वीं शताब्दी में द्वैतवादी जगद्गुरु श्री माध्वाचार्य हुए। सभी के सिद्धान्तों में थोड़ा-थोड़ा मतभेद रहा है, वह भले ही देशकाल परिस्थिति के कारण रहा है। जगद्गुरु शंकराचार्य का सिद्धान्त बिल्कुल ही अलग है और तीनों जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों से। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्री मुख से सभी जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का वेद, शास्त्र सम्मत समन्वय सुनकर काशी के विद्वान् विस्मय से अभिभूत हो नतमस्तक हो गये। अत: उन सब ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि श्री कृपालु जी जगद्गुरुओं में भी सर्वोत्तम हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि चारों जगद्गुरुओं के सिद्धान्तों का समन्वय करने वाला यह कोई अवतारी पुरुष ही है, इतनी अल्पायु में इतना अधिक ज्ञान साधारण प्रतिभा से असम्भव है।
कृपालु भक्तियोग तत्त्वदर्शन
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्त्वदर्शन
पाठक महानुभाव!
हमारा यह 'तत्त्वदर्शन' समस्त शास्त्रों वेदों, पुराणों आदि से संबद्ध है। प्राय: हमारे शास्त्रों में पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को ही लक्ष्य बनाकर सिद्धांत लिखे गये हैं। किंतु मैंने प्रमुख रूप से पंचम पुरुषार्थ श्री राधाकृष्ण प्रेम को ही लक्ष्य बना कर सब रचनायें लिखी हैं। अर्थात् यद्यपि श्रीकृष्ण से पुरुषार्थ चतुष्टय तो प्राप्त होता ही है, किंतु दिव्य प्रेम प्राप्ति का लक्ष्य सर्वोपरि है।
प्राय: सभी जगद्गुरुओं ने संस्कृत भाषा में ही भाष्यों द्वारा अपना मत व्यक्त किया है, किंतु मैंने वर्तमान विश्व की स्थिति के अनुसार हिंदी, ब्रजभाषा आदि मिश्रित भाषाओं में ही अपना मत प्रकट किया है ताकि जन साधारण को विशेष लाभ हो ।
प्राचीन आचार्यों ने तो अधिकारियों को ही दीक्षा दी है, किंतु पश्चात् विरूप होकर सभी को दीक्षा आदि दी जाने लगी। मैंने एक को भी दीक्षा नहीं दी। मेरे मत में आनंद प्राप्ति का ही सब का स्वाभाविक लक्ष्य है। और आनंद एवं श्रीकृष्ण भगवान् पर्यायवाची हैं, अत: सब श्रीकृष्ण संप्रदाय के ही हैं। दूसरा संप्रदाय माया का है किंतु उसे अज्ञानवश लोग चाहते हैं।
मेरे साहित्य से यदि किसी को भी लाभ होगा तो मेरा सौभाग्य होगा। यदि किसी को कष्ट होगा तो वे क्षमा करेंगे।
धन्यवाद।
जगद्गुरु कृपालु
कृपालु साहित्य - शोध का विषय
कृपालु साहित्य
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज महान दार्शनिक, साहित्यकार एवं अलौकिक अद्भुत काव्य प्रतिभा के धनी थे। जो भक्ति दर्शन इन्होंने प्रस्तुत किया है वह युग के अनुरूप है, सार्वभौमिक है। बाल, वृद्ध, युवा, अशिक्षित, शिक्षित, मूर्ख, विद्वान्, भावुक, बुद्धिवादी साधक सिद्ध सभी के द्वारा ग्राह्य है। पढ़कर सुनकर लगता है ये बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक भी थे। लोगों के मनोभावों को अच्छी प्रकार से समझकर ही इन्होंने सिद्धान्तों का निरूपण किया है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जो भी भक्ति सम्बन्धी सिद्धान्त इन्होंने अपने प्रवचन के माध्यम से बताये वही अपने द्वारा प्रणीत गद्यात्मक ग्रन्थों में और वही पद्यात्मक ग्रन्थों में भी लिखे हैं।
शोध का विषय
इनके साहित्य पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य चल रहा है। अभी तक छ: पी.एच.डी. लिखी जा चुकी है। जिसमें से एक पूर्णतया कृपालु साहित्य में संगीत इसी विषय पर आधारित है।
शीर्षक
शोधकर्ता
निर्देशक
A Study of Socio-eco Contributions of Spiritual Organisation: A Case Study of Jagadguru Kripalu Parishat
तितिक्षा नागर
डॉ रेणु जटाना
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान, जुलाई 2017काव्य प्रयोजन की साहित्यिक अवधारणा एवं संत कृपालु महाराज का साहित्य: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
श्रीमती माला खेमानी
डॉ० मुरलिया शर्मा (उपाचार्य)
रा.बा.उ.मा. विद्यालय, कोटा विश्वविद्यालय, कोटा, राजस्थान, 2016जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन साहित्य का अनुशीलन
कु० उपासना जैन
डॉ० पृथ्वीराज मालीवाल
पूर्व अध्यक्ष - हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान, 2012जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के साहित्य में संगीत, एक विवेचनात्मक अध्ययन
कु० ऋतु रानी राठौर
डॉ० श्रीमती आशा पाण्डेय
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा, फरवरी 2004कृष्ण काव्य के परिप्रेक्ष्य में श्री कृपालुदास जी के काव्य साहित्य का अनुशीलन
कु० पुष्पलता शुक्ला
डॉ० हरभजनसिंह हंसपाल
नागपुर विद्यापीठ, नागपुर, अक्टूबर 1995कृपालु दास और उनका काव्य
विष्णु प्रसाद नेमा
डॉ० महावीर सरन जैन
जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर 1978
आपके प्रशंसक
आपके प्रशंसक
देश के महान् पुरुष, महान् संत जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज राष्ट्र के ही नहीं अपितु पूरे विश्व का कल्याण करने वाले जगद्गुरु थे। जिन्होंने विश्व बन्धुत्व की अलख जगाते हुये बिना किसी भेदभाव के सभी को भगवान् की भक्ति उपासना करने का सन्देश दिया और उन्होंने अपने दिव्य अलौकिक प्रवचनों के माध्यम से विश्व शान्ति का आह्वान किया।
समाज में जहाँ आवश्यक है वहाँ आरोग्य, शिक्षा और अध्यात्म संस्कारों की सेवापूर्ति के लिये, जिनकी अविरत कृपा रही, अपना समग्र जीवन और सारी स्वपूंजी को समर्पित करते रहे। न कोई संप्रदाय, न कोई शिष्य, सभी का आदर, सभी से करुणा और राधा कृष्ण के प्रेम की आशिष। सनातन सेवा का संदेश दुनियाभर में प्रेषित करने वाले थे कृपालु जी महाराज।
नरेंद्र मोदी
भारत के प्रधान मंत्रीपूज्य महाराजश्री ज्ञान भक्ति के अगाध समुद्र थे। इस वर्तमान युग के अवतार पुरुष थे। भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, संस्कृति के संरक्षक थे और उस ऋषि परम्परा के जीवन्त स्वरूप, उसके प्रतिरूप, उसके प्रतिनिधि शाश्वत दिव्य शक्ति थे। महाराजश्री ने 91 वें वर्ष के एक लम्बे काल खण्ड तक अपनी पावन उपस्थिति से इस पूरे विश्व को, पूरे ब्रह्माण्ड को गौरवान्वित किया। विश्व में अलग-अलग महापुरुष के साथ अलौकिक प्रतिभाओं का, दिव्य गुणों का, किसी एक बड़ी महिमा का उनके साथ एक संयोग जुड़ा होता है। चार वेद, छः शास्त्रों, उपनिषदों, अठारह पुराणों, रामायण, गीता, महाभारत से लेकर के सम्पूर्ण भारत की सनातन आर्ष ज्ञान परम्परा समग्र रूप से अकेले एक श्रीमहाराजजी समाहित थी और इस युग के कम्प्यूटर से भी ज्यादा जिसके भीतर अथाह ज्ञान सागर, एक-एक शास्त्र वेद की एक एक पंक्ति, उसका क्रम, उसकी संख्या और उसके भीतर जो सन्निहित ज्ञान है उसको जिस तरह से श्री महाराजश्री ने पूरे विश्व के कल्याण के लिये प्रस्तुत किया, वो सब आपका महान योगदान सदा सदा के लिये स्मरणीय रहेगा। मैंने अनेक बार महाराजश्री के व्याख्यान सुने हैं.....
महाराज श्री चलते थे, उठते बैठते थे, तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई व्यक्ति उठ रहा है, बैठ रहा है, चल रहा है। बल्कि ऐसा अनुभव होता था मानो भारत का इतिहास, भारत का धर्म, भारत की गौरवमय संस्कृति, भारत की सम्पूर्ण ऋषि परम्परा अलौकिक महापुरुष के माध्यम से जीवन्त हो रही है।
वो हमारे पूरे सनातन धर्म के, ऋषि परम्परा के, वैदिक संस्कृति के वास्तविक शाश्वत मूलाधार थे और वो हम सबको युगों युगों तक प्रेरणा देते रहेंगे और उनके अनुग्रह से हम सदा अभिभूत होते रहेंगे। मैं ऐसे अवतारी दिव्य महापुरुष को विनम्र प्रणाम करता हूँ।
योग गुरु बाबा रामदेव
पतंजलि योग पीठ, हरिद्वारमुझ जैसे नास्तिक को भी आस्तिक बनाने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का प्रवचन 'आज तक' टी वी चैनल पर लाखों लोग सुनते हैं, वे लोग भी ये अनुभव करते होंगे कि इनके जैसा स्पष्ट वक्ता कोई नहीं है और इनके जैसा शास्त्रों वेदों का ज्ञाता भी कोई नहीं है। आजकल जो इनका ब्रह्म, जीव, माया तत्त्वज्ञान सम्बन्धी धारावाहिक प्रवचन चल रहा है वह तो अद्भुत ही है उसे सुनकर तो लगता है कि इन्हें कम्प्यूटर जगद्गुरु कहा जाय। गीता, भागवत, रामायण ही नहीं उपनिषत् एवं ब्रह्म सूत्र भी इस प्रकार नम्बर सहित बोलते हैं • लगता है कोई बटन दबाता चला जा रहा है। यद्यपि मुझे संस्कृत नहीं आती फिर भी इनका इस प्रकार से बोलना इतना मनमोहक है। कि बार बार सुनने का मन होता है। मेरे विषय में सब लोग जानते हैं कि मैं तो सदैव महात्माओं का आलोचक ही रहा हूँ • मुझे किसी ने भी प्रभावित नहीं किया लेकिन ये मेरे मनपसन्द वक्ता हैं क्योंकि ये मेरे जैसे ही स्पष्ट वक्ता हैं, मेरी तरह ही क्रान्तिकारी विचार वाले हैं। मैं भी एक निडर लेखक हूँ, और ये भी निडर होकर हिन्दू धर्म के नाम पर अपना व्यापार चलाने वाले, कान फूँक फूँक कर चेला बनाने वाले दम्भी बाबाओं के विषय में आवाज उठाते हैं। ये धार्मिक जगत् में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला रहे हैं।
इन्होंने आज तक कोई भी शिष्य नहीं बनाया, किसी के भी कान नहीं फूँके । ये शिष्य या सम्प्रदाय बनाने के विरुद्ध हैं बल्कि शिष्यों की लाइन लगाने वालों को फटकारते हैं अतः वे लोग किसी न किसी प्रकार से इनके बारे में विष उगलते रहते हैं। इनका अपना कोई मकान नहीं है, कोई जमीन नहीं है कोई प्रापर्टी नहीं है किन्तु भोली भाली जनता को गुमराह करने में चतुर, स्वार्थपरायण लोग तरह तरह की गलतफहमियाँ फैला रहे हैं कि कृपालु जी महाराज के पास बहुत पैसा है। आश्चर्य तो यह है कि इनका कोई शिष्य नहीं है फिर भी अध्यात्मवाद के साथ साथ ये दो धर्मार्थ चिकित्सालय भी चला रहे हैं हजारों गरीब लोगों की प्रतिदिन नि:शुल्क चिकित्सा हो रही है और ऐसा ही एक तीसरा अस्पताल वृन्दावन में शीघ्र ही खुलने जा रहा है। मुझे टी वी के माध्यम से पता चला कि इन्होंने भक्ति मन्दिर और प्रेम मन्दिर के रूप में दो ऐसे विशाल ऐतिहासिक मन्दिरों का निर्माण कराया है जिनकी गणना भारत के अद्वितीय स्मारकों में होगी।
अत्यधिक वृद्ध और अस्वस्थ होने के कारण मैं व्यक्तिगत रूप से इनसे मिलने नहीं जा सका किन्तु ये मेरे हृदय में बस गये हैं। बाकी सब वक्ताओं को सुनकर लगता है वे जोकरी कर रहे हैं और हिन्दूधर्म के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, शास्त्रों वेदों का नाम तक नहीं जानते और टी वी चैनल पर बोलना प्रारम्भ कर देते हैं। मेरे दृष्टिकोण में सम्पूर्ण विश्व में यही एक ऐसे सन्त हैं जिनमें जगद्गुरु कहलाने की योग्यता है, इनके 87 वर्षीय जन्म दिन पर हार्दिक बधाई देते हुए मैं सभी से निवेदन करता हूँ कि इनके प्रवचनों का पूरा पूरा लाभ उठायें। इनकी दीर्घायु की कामना करता हूँ, ये सदैव स्वस्थ रहें एवं इसी प्रकार सही मार्गदर्शन प्रदान करते रहें।
खुशवन्त सिंह
प्रसिद्ध उपन्यासकार और पत्रकार