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जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम मूल जगद्गुरु हुए। उनको 1957 में 500 शीर्षस्थ शास्त्रज्ञ विद्वानों की तत्कालीन सभा- काशी विद्वत् परिषत् द्वारा 'जगद्गुरु' की मूल उपाधि से विभूषित किया गया। उनके भक्ति रस से ओतप्रोत व्यक्तित्व को देखकर उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि ये भक्तियोगरसावतार हैं । इनके द्वारा प्रकटित ज्ञान का अगाध समुद्र आज कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन के नाम से जाना जाता है। इनका अलौकिक साहित्य यथा प्रेम रस सिद्धांत, प्रेम रस मदिरा, राधा गोविंद गीत आदि, इनके द्वारा विश्व को समर्पित दिव्यातिदिव्य स्मारक- प्रेम मंदिर, कीर्ति मंदिर एवं भक्ति मंदिर तथा वेदों शास्त्रों के प्रमाणों से युक्त प्रवचन एवं रसमय संकीर्तन के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व में बहुत से धर्म चल रहे हैं- श्री महाराज जी सभी धर्मों का सम्मान करते हुए उनके विरोधाभासी सिद्धान्तों को समन्वय करते हुए ऐसा सरल मार्ग बताते हैं जो सार्वभौमिक है।

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लेखक

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का जन्म 1922 में शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त के प्रतापगढ़ जिले के मनगढ़ ग्राम में सर्वोच्च ब्राह्मण कुल में हुआ।

इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मनगढ़ एवं कुन्डा में सम्पन्न हुई। पश्चात् इन्होंने इन्दौर, चित्रकूट एवं वाराणसी में व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेद का अध्ययन किया।

16 वर्ष की अत्यल्पायु में चित्रकूट में शरभंग आश्रम के समीपस्थ बीहड़ वनों में एवं वृन्दावन में वंशीवट के निकट जंगलों में वास किया ।

श्रीकृष्ण प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी इनको देखता वह आश्चर्यचकित होकर यही कहता कि यह तो प्रेम के साकार स्वरूप हैं, भक्तियोगरसावतार हैं। उस समय कोई यह अनुमान नहीं लगा सका कि ज्ञान का अगाध अपरिमेय समुद्र भी इनके अन्दर छिपा हुआ है क्योंकि प्रेम की ऐसी विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं थी, घंटों-घंटों मूर्च्छित रहते। कभी उन्मुक्त अट्टहास करते तो कभी भयंकर रुदन। खाना-पीना तो जैसे भूल ही गये थे। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती रहती थी, कभी किसी कटीली झाड़ी में वस्त्र उलझ जाते, तो कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते। किन्तु धीरे धीरे अपने इस दिव्य प्रेम का गोपन करके श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार करने लगे। अब प्रेम के साथ-साथ ज्ञान का प्रकटीकरण भी होने लगा था।

1955 में इन्होंने चित्रकूट में एक विराट् दार्शनिक सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें काशी आदि स्थानों के अनेक विद्वान् एवं समस्त जगद्गुरु भी सम्मिलित हुए। 1956 में ऐसा ही एक विराट् संत सम्मेलन इन्होंने कानपुर में आयोजित किया था। इनके समस्त वेद शास्त्रों के अद्वितीय, असाधारण ज्ञान से वहाँ उपस्थित काशी के मूर्धन्य विद्वान् स्तम्भित रह गये। उस समय इनके सम्बन्ध में काशी के प्रख्यात पंडित, शास्त्रार्थ महाविद्यालय (काशी) के संस्थापक, शास्त्रार्थ महारथी, भारत के सर्वमान्य एवं अग्रगण्य दार्शनिक, काशी विद्वत्परिषत् के प्रधानमंत्री आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल 'षट्शास्त्री ' ने सार्वजनिक रूप से जो घोषणा की थी, उसका अंश इस प्रकार है- (कानपुर 19-10-56)

“काशी के पंडित आसानी से किसी को समस्त शास्त्रों का विद्वान् नहीं स्वीकार करते। हम लोग तो पहले शास्त्रार्थ करने के लिए ललकारते हैं। हम उसे हर प्रकार से कसौटी पर कसते हैं और तब उसे शास्त्रज्ञ स्वीकार करते हैं। हम आज इस मंच से इस विशाल विद्वन्मंडल को यह बताना चाहते हैं कि हमने संताग्रगण्य श्री कृपालु जी महाराज एवं उनकी भगवद्दत्त प्रतिभा को पहचाना है और हम आपको सलाह देना चाहते हैं कि आप भी इनको पहचानें और इनसे लाभ उठायें।

आप लोगों के लिये यह परम सौभाग्य की बात है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके बीच में आये हैं। काशी समस्त विश्व का गुरुकुल है। हम उसी काशी के निवासी यहाँ बैठे हुए हैं। कल श्री कृपालु जी के अलौकिक वक्तव्य को सुनकर हम सब नत-मस्तक हो गये। हम चाहते हैं कि लोग श्री कृपालु जी महाराज को समझें और इनके सम्पर्क में आकर इनके सरल, सरस, अनुभूत एवं विलक्षण उपदेशों को सुनें तथा अपने जीवन में उसे क्रियात्मक रूप से उतारकर अपना कल्याण करें।“

इसके पश्चात् इनको काशी विद्वत्परिषत् (भारत के लगभग 500 शीर्षस्थ शास्त्रज्ञ, वेदज्ञ विद्वानों की तत्कालीन सभा) ने काशी आने का निमंत्रण दिया। केवल 34 वर्षीय श्री महाराज जी को वयोवृद्ध विद्वानों के मध्य देखकर कुछ भावुक भक्त कहने लगे -उदित उदय गिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग

श्री कृपालु जी के कठिन संस्कृत में दिये गये विलक्षण प्रवचन को सुनकर एवं भक्ति रस से ओत-प्रोत अलौकिक व्यक्तित्व को देखकर सभी विद्वान् मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने स्वीकार किया कि यह केवल वेदों, शास्त्रों, पुराणों के मर्मज्ञ ही नहीं है अपितु प्रेम के साकार स्वरूप भी हैं। तब सबने एकमत होकर इनको 14 जनवरी 1957 को 'जगद्गुरूत्तम' की उपाधि से विभूषित किया। उन्होंने घोषित किया कि श्री कृपालु जी को 'जगद्गुरूत्तम' की पदवी से सुशोभित किया जा रहा है।

..धन्यो मान्य जगद्गुरूत्तमपदैः सोऽयं समभ्यर्च्यते ।

इतना ही नहीं उन विद्वानों ने उनके अनुभवात्मक दिव्य ज्ञान व भक्तिरस से ओतप्रोत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अन्य बहुत सी उपाधियाँ भी प्रदान की

श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण, 
वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य, 
सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य, 
भक्तियोगरसावतार भगवदनन्तश्रीविभूषित

जगद्गुरु १००८

स्वामि श्री कृपालु जी महाराज

सम्पूर्ण विश्व में भक्ति का प्रकाश

भक्ति तत्व को सम्पूर्ण विश्व में प्रकाशित करने के लिए आपने असंख्य प्रवचन दिये। जगह जगह घूमकर भारत के विभिन्न प्रान्तों में स्वयं पहुँचकर इन्होंने श्रीकृष्ण की अनन्य निष्काम भक्ति का प्रचार किया। छोटे से छोटे गाँव, बड़े से बड़े शहर दोनों जगह समान रूप से जाकर भक्ति का प्रचार किया।

इन्होंने विभिन्न देशों की यात्रा कर भक्ति का धुआँधार प्रचार किया । विभिन्न सभ्यताओं, विभिन्न जातियों, गरीब अमीर सबको गले लगाया। हिन्दी न जानने वाले भी इनके स्नेहमय मनमोहक स्वरूप से इनके प्रेमपाश में बँध गये। शास्त्रों वेदों के सिद्धान्तों को जन जन तक पहुँचाकर आपने विश्व का महान उपकार किया है। अज्ञान निन्द्रा में सोये लोगों को जगाकर उनके साथ उनके परम हितैषी मित्र की तरह व्यवहार करके स्वयं उनके साथ भक्तियोग की साधना की और उनसे अभ्यास कराया। समस्त शास्त्रों वेदों का सार भगवान् की अनन्य निष्काम भक्ति ही है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

  • अद्वितीय अलौकिक अभूतपूर्व

    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अन्य बहुत-सी ऐसी विशेषतायें थीं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं, अर्थात् समस्त मौलिक जगद्गुरुओं के इतिहास में कुछ विशिष्ट घटनायें इनके ही जीवन में पहली बार घटित हुईं।

    • ये पहले जगद्गुरु हुए जिनका कोई गुरु नहीं था और वे स्वयं जगद्गुरूत्तम थे।
    • ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने एक भी शिष्य नहीं बनाया किन्तु इनके लाखों अनुयायी हैं।
    • ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने ज्ञान एवं भक्ति दोनों में सर्वोच्चता प्राप्त की व दोनों का मुक्तहस्त से दान किया। साथ ही भौतिक दान में भी अवढरदानी के समान रहे। समाज के अभावग्रस्त लोगों की सेवार्थ निर्धन सहायता कोष स्थापित करके गये हैं, जिससे भविष्य में भी ये सेवायें सुचारू रूप से चलती रहें।
    • ये पहले जगद्गुरु हुए जो 91 वर्ष की आयु में भी समस्त उपनिषदों, भागवतादि पुराणों, ब्रह्मसूत्र, गीता आदि प्रमाणों के नम्बर इतनी तीव्र गति से बोलते थे कि सभी शास्त्रज्ञों, वेदज्ञों, सन्तों ने हृदय से स्वीकार किया कि ये क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ एवं कोई अवतारी महापुरुष ही थे। सभी श्रोता जिसने भी उनके प्रवचन सुने, चाहे टी. वी. के माध्यम से, चाहे व्यक्तिगत रूप से वह हृदय से स्वीकार करता है कि ऐसी अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न विद्वान आज तक नहीं हुआ। पूर्ववर्ती सभी जगद्गुरुओं को शास्त्रार्थ द्वारा तत्कालीन विद्वानों को परास्त करने के उपरान्त जगद्गुरु की उपाधि प्राप्त हुई किन्तु जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के तो प्रवचन को सुनकर ही काशी विद्वत्परिषत् के सभी विद्वान् नतमस्तक हो गये और इन्हें जगद्गुरूत्तम की उपाधि से विभूषित किया।
    • ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने अपना उत्तराधिकारी भी किसी को नहीं बनाया, यानी ये गद्दीधारी जगद्गुरु नहीं है। संस्थाओं का कार्यभार संभालने के लिए अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपनी तीनों सुपुत्रियों को जे.के.पी. की अध्यक्षाओं के रूप में नियुक्त कर दिया था।
    • ये पहले जगद्गुरु हुए जिन्होंने पूरे विश्व में राधाकृष्ण की माधुर्य भक्ति का धुआंधार प्रचार किया एवं सुमधुर राधा नाम को विश्वव्यापी बना दिया। अब उनके द्वारा बनाये गये प्रचारक, प्रचार कर रहे हैं।
    • यद्यपि ये भौतिक रूप से हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु आज भी अपने असंख्यों प्रवचनों, संकीर्तनों एव साहित्य के द्वारा अपनी आध्यात्मिक उपस्थिति का अनुभव कराते हुए करोड़ों जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

जीवन परिचय

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

शास्त्रीय सिद्धान्तों का निरूपण करते हुए भक्ति तत्त्व के प्रचार प्रसार के लिए श्री महाराज जी की 91 वर्षों की जीवन यात्रा उनके संघर्षमय जीवन, त्याग, तपस्या, समर्पण की पुण्य गाथा है।

सनातन वैदिक धर्म प्रतिष्ठापना के लिए जिज्ञासुओं की आध्यात्मिक भूख शान्त करने के लिये, प्रेमियों को प्रेमरस पिलाने के लिये उन्होंने अपने सुख, विश्राम, भोजन की चिन्ता किये बिना जीवन पर्यन्त जगह जगह घूम घूम कर श्री कृष्ण की अनन्य निष्काम भक्ति का धुआँधार प्रचार किया है।

  • बाल्यकाल

    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का जन्म शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में एक छोटे से ग्राम मनगढ़ में हुआ। इनके पिताजी श्री लालता प्रसाद त्रिपाठी एवं माता जी का नाम श्रीमती भगवती देवी था।

    आपकी प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में हुई। मेधावी छात्रों की भाँति ये सदा ही कक्षा में प्रथम उत्तीर्ण होते रहे। अपने अध्यापकों के ये सदा अत्यन्त प्रिय रहे । 1931 में प्राइमरी पास करके आपने मनगढ़ ग्राम से पाँच मील दूर कुंडा मिडिल स्कूल में 1932 में दाखिला लिया। अपने क्षेत्र और कुल की परम्परा के अनुसार सन् 1933 में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह सम्पन्न हो गया।

  • शिक्षा

  • चित्रकूट और वृन्दावन के जंगलों में

  • चित्रकूट सम्मेलन

  • कानपुर सम्मेलन

  • ऐतिहासिक स्वर्णिम दिवस

  • विश्व के इतिहास में पांचवें मूल जगद्गुरु

जगद्गुरु

जगद्गुरु शब्द बहुत पुराना है। महाभारत में अर्जुन ने श्री कृष्ण को जगद्गुरु कहा है - कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।

अतःमूल जगद्गुरु श्री कृष्ण हैं। किन्तु संसार में यह परम्परा आदि जगद्गुरु शंकराचार्य से प्रारम्भ हुई जो स्वयं शंकर भगवान् के ही अंशावतार थे। कलियुग में जब पाखण्ड बहुत बढ़ने लगा, बड़ी गड़बड़ हो गई, कपड़ा रंगा के बिना पढ़े-लिखे लाखों बाबा लोग हो गये। इन लोगों ने बिना शास्त्र, वेद, पढ़े, समझे मनगढ़न्त मार्ग बनाये और लोगों के कान फूँकने शुरू किये। अतः सही तत्त्वज्ञान के अभाव में लोग अत्यधिक भ्रमित हो गये।

इसलिए सब विद्वानों ने मिलकर यह निश्चय किया कि किसी एक महात्मा को हम जगद्गुरु की उपाधि दे दें। जगद्गुरु की उपाधि से वही सुशोभित होगा जो वेदज्ञ हो, शास्त्रज्ञ हो तथा भगवत्प्राप्ति भी कर चुका हो। भारत के सभी विद्वान् उसके सामने नतमस्तक हो जायें, तभी वह जगद्गुरु पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। लोग निश्चिन्त होकर उसके पास जायें और साधना करें। अतः धोखे से बच जायेंगे।

शंकराचार्य प्रथम जगद्गुरु हुए। इनके समय कोई सभा तो थी नहीं, इन्होंने सारे भारतवर्ष के विद्वानों को दिग्विजय किया। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के पश्चात् श्री रामानुजाचार्य, श्री निम्बार्काचार्य एवं श्री माध्वाचार्य जगद्गुरु हुए। उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान् आप सभी के ज्ञान के समक्ष नतमस्तक हो गये अतः ये सब दिग्विजयी कहलाये।

  • पाँचवें मूल जगद्गुरु

    श्री माध्वाचार्य के जगद्गुरु बनने के पश्चात् लगभग 700 वर्ष तक कोई भी जगद्गुरु नहीं हुआ। पश्चात् काशी विद्वत्परिषत् काशी में भारतवर्ष के लगभग 500 मूर्धन्य शास्त्रज्ञ विद्वानों की सभा स्थापित की गई, इन सबके द्वारा एकमत से स्वीकार करने पर ही किसी को जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया जाता था। 14 जनवरी 1957 को इस परिषत् के द्वारा, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज को ही इस ऐतिहासिक उपाधि से विभूषित किया गया था।

  • जगद्गुरूत्तम

  • श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण

  • वेदमार्ग प्रतिष्ठापनाचार्य

  • निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य

  • सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापन सत्संप्रदायपरमाचार्य

  • भक्तियोगरसावतार

  • भगवदनन्तश्रीविभूषित

जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्त्वदर्शन

पाठक महानुभाव!

हमारा यह 'तत्त्वदर्शन' समस्त शास्त्रों वेदों, पुराणों आदि से संबद्ध है। प्राय: हमारे शास्त्रों में पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को ही लक्ष्य बनाकर सिद्धांत लिखे गये हैं। किंतु मैंने प्रमुख रूप से पंचम पुरुषार्थ श्री राधाकृष्ण प्रेम को ही लक्ष्य बना कर सब रचनायें लिखी हैं। अर्थात् यद्यपि श्रीकृष्ण से पुरुषार्थ चतुष्टय तो प्राप्त होता ही है, किंतु दिव्य प्रेम प्राप्ति का लक्ष्य सर्वोपरि है।

प्राय: सभी जगद्गुरुओं ने संस्कृत भाषा में ही भाष्यों द्वारा अपना मत व्यक्त किया है, किंतु मैंने वर्तमान विश्व की स्थिति के अनुसार हिंदी, ब्रजभाषा आदि मिश्रित भाषाओं में ही अपना मत प्रकट किया है ताकि जन साधारण को विशेष लाभ हो ।

प्राचीन आचार्यों ने तो अधिकारियों को ही दीक्षा दी है, किंतु पश्चात् विरूप होकर सभी को दीक्षा आदि दी जाने लगी। मैंने एक को भी दीक्षा नहीं दी। मेरे मत में आनंद प्राप्ति का ही सब का स्वाभाविक लक्ष्य है। और आनंद एवं श्रीकृष्ण भगवान् पर्यायवाची हैं, अत: सब श्रीकृष्ण संप्रदाय के ही हैं। दूसरा संप्रदाय माया का है किंतु उसे अज्ञानवश लोग चाहते हैं।

मेरे साहित्य से यदि किसी को भी लाभ होगा तो मेरा सौभाग्य होगा। यदि किसी को कष्ट होगा तो वे क्षमा करेंगे।

धन्यवाद।

जगद्गुरु कृपालु

कृपालु साहित्य

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज महान दार्शनिक, साहित्यकार एवं अलौकिक अद्भुत काव्य प्रतिभा के धनी थे। जो भक्ति दर्शन इन्होंने प्रस्तुत किया है वह युग के अनुरूप है, सार्वभौमिक है। बाल, वृद्ध, युवा, अशिक्षित, शिक्षित, मूर्ख, विद्वान्, भावुक, बुद्धिवादी साधक सिद्ध सभी के द्वारा ग्राह्य है। पढ़कर सुनकर लगता है ये बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक भी थे। लोगों के मनोभावों को अच्छी प्रकार से समझकर ही इन्होंने सिद्धान्तों का निरूपण किया है। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जो भी भक्ति सम्बन्धी सिद्धान्त इन्होंने अपने प्रवचन के माध्यम से बताये वही अपने द्वारा प्रणीत गद्यात्मक ग्रन्थों में और वही पद्यात्मक ग्रन्थों में भी लिखे हैं।

  • शोध का विषय

    इनके साहित्य पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य चल रहा है। अभी तक छ: पी.एच.डी. लिखी जा चुकी है। जिसमें से एक पूर्णतया कृपालु साहित्य में संगीत इसी विषय पर आधारित है।

    शीर्षक

    शोधकर्ता

    निर्देशक

    A Study of Socio-eco Contributions of Spiritual Organisation: A Case Study of Jagadguru Kripalu Parishat

    तितिक्षा नागर

    डॉ रेणु जटाना
    मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान, जुलाई 2017

    काव्य प्रयोजन की साहित्यिक अवधारणा एवं संत कृपालु महाराज का साहित्य: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

    श्रीमती माला खेमानी

    डॉ० मुरलिया शर्मा (उपाचार्य)
    रा.बा.उ.मा. विद्यालय, कोटा विश्वविद्यालय, कोटा, राजस्थान, 2016

    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन साहित्य का अनुशीलन

    कु० उपासना जैन

    डॉ० पृथ्वीराज मालीवाल
    पूर्व अध्यक्ष - हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान, 2012

    जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के साहित्य में संगीत, एक विवेचनात्मक अध्ययन

    कु० ऋतु रानी राठौर

    डॉ० श्रीमती आशा पाण्डेय
    कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा, फरवरी 2004

    कृष्ण काव्य के परिप्रेक्ष्य में श्री कृपालुदास जी के काव्य साहित्य का अनुशीलन

    कु० पुष्पलता शुक्ला

    डॉ० हरभजनसिंह हंसपाल
    नागपुर विद्यापीठ, नागपुर, अक्टूबर 1995

    कृपालु दास और उनका काव्य

    विष्णु प्रसाद नेमा

    डॉ० महावीर सरन जैन
    जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर 1978

आपके प्रशंसक

  • देश के महान् पुरुष, महान् संत जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज राष्ट्र के ही नहीं अपितु पूरे विश्व का कल्याण करने वाले जगद्गुरु थे। जिन्होंने विश्व बन्धुत्व की अलख जगाते हुये बिना किसी भेदभाव के सभी को भगवान् की भक्ति उपासना करने का सन्देश दिया और उन्होंने अपने दिव्य अलौकिक प्रवचनों के माध्यम से विश्व शान्ति का आह्वान किया।

    समाज में जहाँ आवश्यक है वहाँ आरोग्य, शिक्षा और अध्यात्म संस्कारों की सेवापूर्ति के लिये, जिनकी अविरत कृपा रही, अपना समग्र जीवन और सारी स्वपूंजी को समर्पित करते रहे। न कोई संप्रदाय, न कोई शिष्य, सभी का आदर, सभी से करुणा और राधा कृष्ण के प्रेम की आशिष। सनातन सेवा का संदेश दुनियाभर में प्रेषित करने वाले थे कृपालु जी महाराज।

    नरेंद्र मोदी
    भारत के प्रधान मंत्री

  • पूज्य महाराजश्री ज्ञान भक्ति के अगाध समुद्र थे। इस वर्तमान युग के अवतार पुरुष थे। भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, संस्कृति के संरक्षक थे और उस ऋषि परम्परा के जीवन्त स्वरूप, उसके प्रतिरूप, उसके प्रतिनिधि शाश्वत दिव्य शक्ति थे। महाराजश्री ने 91 वें वर्ष के एक लम्बे काल खण्ड तक अपनी पावन उपस्थिति से इस पूरे विश्व को, पूरे ब्रह्माण्ड को गौरवान्वित किया। विश्व में अलग-अलग महापुरुष के साथ अलौकिक प्रतिभाओं का, दिव्य गुणों का, किसी एक बड़ी महिमा का उनके साथ एक संयोग जुड़ा होता है। चार वेद, छः शास्त्रों, उपनिषदों, अठारह पुराणों, रामायण, गीता, महाभारत से लेकर के सम्पूर्ण भारत की सनातन आर्ष ज्ञान परम्परा समग्र रूप से अकेले एक श्रीमहाराजजी समाहित थी और इस युग के कम्प्यूटर से भी ज्यादा जिसके भीतर अथाह ज्ञान सागर, एक-एक शास्त्र वेद की एक एक पंक्ति, उसका क्रम, उसकी संख्या और उसके भीतर जो सन्निहित ज्ञान है उसको जिस तरह से श्री महाराजश्री ने पूरे विश्व के कल्याण के लिये प्रस्तुत किया, वो सब आपका महान योगदान सदा सदा के लिये स्मरणीय रहेगा। मैंने अनेक बार महाराजश्री के व्याख्यान सुने हैं.....

    महाराज श्री चलते थे, उठते बैठते थे, तो ऐसा नहीं लगता था कि कोई व्यक्ति उठ रहा है, बैठ रहा है, चल रहा है। बल्कि ऐसा अनुभव होता था मानो भारत का इतिहास, भारत का धर्म, भारत की गौरवमय संस्कृति, भारत की सम्पूर्ण ऋषि परम्परा अलौकिक महापुरुष के माध्यम से जीवन्त हो रही है।

    वो हमारे पूरे सनातन धर्म के, ऋषि परम्परा के, वैदिक संस्कृति के वास्तविक शाश्वत मूलाधार थे और वो हम सबको युगों युगों तक प्रेरणा देते रहेंगे और उनके अनुग्रह से हम सदा अभिभूत होते रहेंगे। मैं ऐसे अवतारी दिव्य महापुरुष को विनम्र प्रणाम करता हूँ।

    योग गुरु बाबा रामदेव
    पतंजलि योग पीठ, हरिद्वार

  • मुझ जैसे नास्तिक को भी आस्तिक बनाने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज का प्रवचन 'आज तक' टी वी चैनल पर लाखों लोग सुनते हैं, वे लोग भी ये अनुभव करते होंगे कि इनके जैसा स्पष्ट वक्ता कोई नहीं है और इनके जैसा शास्त्रों वेदों का ज्ञाता भी कोई नहीं है। आजकल जो इनका ब्रह्म, जीव, माया तत्त्वज्ञान सम्बन्धी धारावाहिक प्रवचन चल रहा है वह तो अद्भुत ही है उसे सुनकर तो लगता है कि इन्हें कम्प्यूटर जगद्गुरु कहा जाय। गीता, भागवत, रामायण ही नहीं उपनिषत् एवं ब्रह्म सूत्र भी इस प्रकार नम्बर सहित बोलते हैं • लगता है कोई बटन दबाता चला जा रहा है। यद्यपि मुझे संस्कृत नहीं आती फिर भी इनका इस प्रकार से बोलना इतना मनमोहक है। कि बार बार सुनने का मन होता है। मेरे विषय में सब लोग जानते हैं कि मैं तो सदैव महात्माओं का आलोचक ही रहा हूँ • मुझे किसी ने भी प्रभावित नहीं किया लेकिन ये मेरे मनपसन्द वक्ता हैं क्योंकि ये मेरे जैसे ही स्पष्ट वक्ता हैं, मेरी तरह ही क्रान्तिकारी विचार वाले हैं। मैं भी एक निडर लेखक हूँ, और ये भी निडर होकर हिन्दू धर्म के नाम पर अपना व्यापार चलाने वाले, कान फूँक फूँक कर चेला बनाने वाले दम्भी बाबाओं के विषय में आवाज उठाते हैं। ये धार्मिक जगत् में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला रहे हैं।

    इन्होंने आज तक कोई भी शिष्य नहीं बनाया, किसी के भी कान नहीं फूँके । ये शिष्य या सम्प्रदाय बनाने के विरुद्ध हैं बल्कि शिष्यों की लाइन लगाने वालों को फटकारते हैं अतः वे लोग किसी न किसी प्रकार से इनके बारे में विष उगलते रहते हैं। इनका अपना कोई मकान नहीं है, कोई जमीन नहीं है कोई प्रापर्टी नहीं है किन्तु भोली भाली जनता को गुमराह करने में चतुर, स्वार्थपरायण लोग तरह तरह की गलतफहमियाँ फैला रहे हैं कि कृपालु जी महाराज के पास बहुत पैसा है। आश्चर्य तो यह है कि इनका कोई शिष्य नहीं है फिर भी अध्यात्मवाद के साथ साथ ये दो धर्मार्थ चिकित्सालय भी चला रहे हैं हजारों गरीब लोगों की प्रतिदिन नि:शुल्क चिकित्सा हो रही है और ऐसा ही एक तीसरा अस्पताल वृन्दावन में शीघ्र ही खुलने जा रहा है। मुझे टी वी के माध्यम से पता चला कि इन्होंने भक्ति मन्दिर और प्रेम मन्दिर के रूप में दो ऐसे विशाल ऐतिहासिक मन्दिरों का निर्माण कराया है जिनकी गणना भारत के अद्वितीय स्मारकों में होगी।

    अत्यधिक वृद्ध और अस्वस्थ होने के कारण मैं व्यक्तिगत रूप से इनसे मिलने नहीं जा सका किन्तु ये मेरे हृदय में बस गये हैं। बाकी सब वक्ताओं को सुनकर लगता है वे जोकरी कर रहे हैं और हिन्दूधर्म के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं, शास्त्रों वेदों का नाम तक नहीं जानते और टी वी चैनल पर बोलना प्रारम्भ कर देते हैं। मेरे दृष्टिकोण में सम्पूर्ण विश्व में यही एक ऐसे सन्त हैं जिनमें जगद्गुरु कहलाने की योग्यता है, इनके 87 वर्षीय जन्म दिन पर हार्दिक बधाई देते हुए मैं सभी से निवेदन करता हूँ कि इनके प्रवचनों का पूरा पूरा लाभ उठायें। इनकी दीर्घायु की कामना करता हूँ, ये सदैव स्वस्थ रहें एवं इसी प्रकार सही मार्गदर्शन प्रदान करते रहें।

    खुशवन्त सिंह
    प्रसिद्ध उपन्यासकार और पत्रकार